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________________ आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ४७ या भविष्य में चाहे जितनी बार होगा, उन सभी पुराने नये शरीरों में आत्मा तो वही का वही रहता है। उसका नाश नहीं होता। कर्मवशात् जीव ने जितने शरीर भूतकाल में धारण किये, भविष्य में वह जितने शरीर धारण करेगा तथा वर्तमान में वह जिस शरीर में है, ये सब आत्मद्रव्य की वैभाविक पर्यायें हैं। जिस प्रकार पुराना जीर्ण वस्त्र छोड़कर नया पहना जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण कर लेता है । जन्म-मरण के द्वारा केवल शरीर बदलता जाता है, आत्मा नहीं बदलती, उसका कभी नाश नहीं होता। इसी प्रकार एक ही शरीर में कई अवस्थाएँ बदलती हैं। पहले बालक फिर युवक और तत्पश्चात् वृद्ध होता है। परन्तु इन सभी अवस्थाओं के बदलने पर भी आत्मा तो वही का वही रहता है। ये शरीर की अवस्थाएँ हैं, आत्मा की नहीं। जिसने बचपन को जाना था, वही जवानी को जानता और भोगता है, और वही बुढ़ापे को जानता है और अनुभव करता है। इन तीनों अवस्थाओं का अनुभव उसने ही किया, उसको तो तीनों अवस्थओं को स्मृति है। शरीर की अवस्थाएँ बदल जाने पर भी वह (आत्मा) नहीं बदला यही सबूत है कि आत्मा ध्रौव्य-नित्य है। ये अवस्थाएँ उत्पाद-व्यय स्वभाव वाली है, अर्थात्-अनित्य हैं । जिस प्रकार द्रव्य की पर्यायें होती हैं, उसी प्रकार गुण की भी पर्यायें होती हैं । जैसे आत्मा द्रव्य है, ज्ञान आदि उसके गुण हैं। गुण भी परिणमनशील हैं । गुणों में भी पर्यायों का उत्पाद-विनाश होता रहता है। परन्तु गुण की पर्यायें बदलती रहने पर भी उस गुण का नाश नहीं होता । उदाहरणार्थ, पानी का मूल गुण शीतलता है। उसमें हानि-वृद्धि होती रहती है । गर्म हवाएं चलने के कारण या सूर्य अथवा अग्नि के अत्यन्त उष्ण ताप के कारण पानी कभी गर्म हो जाता है, कभी ठंडी बर्फीली हवाएँ चलने के कारण अत्यन्त ठंडा हो जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में पानी के शीतलता-गुण की पर्यायें बदलीं । इनके पीछे कारण था-अन्य १ वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ -भगवद्गीता २/२२ २ देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तर प्राप्ति /रस्तत्र न मुह्यति ॥ --भगवद्गीता २/१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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