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________________ आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ४१ आध्यात्मिक साधना के द्वारा परमात्मपद पाने के लिए बौद्धमान्य आत्मा अयोग्य सिद्ध होती है, क्योंकि पहले क्षण जिस आत्मा ने ज्ञानादि की साधना की थी, वह दूसरे क्षण नष्ट हो चुकी, फिर उस साधना का पुरुषार्थ व्यर्थ गया। अतः बौद्धमान्य आत्मा परमात्मा बन नहीं सकेगा। वर्तमान आत्मा नष्ट न हो और आगे नवीन आत्मा उत्पन्न न हो, तभी वह आत्मा परमात्मा बन सकती है, अन्यथा नहीं। बौद्धदर्शन के अनुसार यह सम्भव नहीं है। न रहेगी साधना करने वाली आत्मा, और न ही वह परमात्मा बन सकेगी, न मुक्ति प्राप्त कर सकेगी और न ही समस्त दुःखों से मुक्त हो सकेगी। देवसमाज की मान्यता देवसमाज आत्मा को प्रकृतिजन्य, जड़-पदार्थ मानता है। उसके मतानुसार आत्मा भौतिक है, अभौतिक = चैतन्यमय नहीं। साथ ही वह अजर, अमर, अविनाशी, सदास्थायी नहीं है, वह एक दिन उत्पन्न होती है और नष्ट हो जाती है। आध्यात्मिक साधना के द्वारा परमात्मपद या मोक्षपद प्राप्त करने का लक्ष्य देवसमाज के पास नहीं है। जब आत्मा चेतनामय नहीं है, तब ज्ञान-दर्शन के बिना परमात्म पद या मोक्षपद प्राप्त करने का सवाल ही कहाँ रहा ? आर्यसमाज-मान्य आत्मा आर्यसमाज मानता है कि आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी कदापि नहीं हो सकती, वह सदा अल्पज्ञ ही रहेगी। सर्वज्ञ तो एकमात्र परमात्मा ही रहेगा। इसके अतिरिक्त अल्पज्ञ आत्मा कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होकर कभी परमात्मा या सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन ही नहीं सकती। मृत्यु के बाद शुभ कर्मवशात् आत्मा कुछ दिन मोक्ष में घूम-घामकर, वहाँ का सुखभोग प्राप्त करके पूनः अशुभकर्मवश इधर-उधर की दुर्गतियों और अशुभयोनियों में दुःख भोगेगी। इस प्रकार आत्मा बार-बार सूख-दुःख के हिंडोले में झलती रहेगी। वह एकान्तसुखस्वरूप मोक्षपद को कदापि प्राप्त नहीं कर सकेगी। ऐसी स्थिति में वह सदा के लिए अजर-अमर, अशरीरी, सर्वकर्मरहित, सर्वदुःखमुक्त शुद्ध-आत्मा परमात्मा कभी नहीं बन सकेगी। निश्चय-व्यवहार दृष्टि से : जैनदर्शन-मान्य आत्मा সমৰ মাসই হয়ন? অহাবী ও Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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