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४० | अप्पा सो परमप्पा
आत्मा प्रकृति के द्वारा किये जाने वाले कर्मों को अहंकार-मूढ होकर अपने मान लेता है, इसलिए कर्मों का फल भोक्ता होता है। आत्मा के सम्बन्ध में सांख्यदर्शन की इस विचित्र मान्यता के अनुसार तो आत्मा परमात्मा बनने में असमर्थ और पंगु ही ठहरेगा, क्योंकि वह न तो कर्मों का कर्ता है, और कर्मों को काटने में भी समर्थ नहीं है । वह कर्तृत्वहीन होने के कारण परमात्मा बनने की रत्नत्रय-साधना भी कैसे कर सकेगा ? जड़ प्रकृति कैसे कर्म करेगी और कैसे कर्मों को काटेगी ? क्योंकि उसमें सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का अभाव है। आत्मा स्वयं स्वभाव में रमण नहीं कर सकता तो जड़ प्रकृति आत्मा (पुरुष) के बदले कैसे स्वयं स्वभाव में रमण करेगी?
योगदर्शन भी सांख्यदर्शन का भाई है। सांख्यदर्शन दर्शनपक्ष है और योगदर्शन साधनापक्ष है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा का स्वरूप
वैशेषिक दर्शन के मतानुसार आत्मा एकान्तनित्य है, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । सूख-दुःख आदि के रूप में आत्मा में जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है, वह स्वयं आत्मा में नहीं होता, आत्मा के गुणों में होता है। ज्ञान, सुख-दुःख आदि आत्मा के गुण माने गये हैं, किन्तु ये गुण आत्मा को संसार में भटकाने वाले हैं, आत्मा के लिए हानिकर हैं। जब तक ये गुण नष्ट नहीं हो जाएंगे, तब तक उस आत्मा को मोक्ष नहीं हो सकेगा। अभिप्राय यह है कि आत्मा अपने आप में जड़ है, ज्ञानगृण आत्मा से भिन्न पदार्थ के रूप में माना जाता है। इसी ज्ञानगुण के सम्बन्ध से आत्मा में चेतना है, स्वतः चेतना नहीं। फिर वैशेषिक दर्शन आत्मा को अनेक और सर्वव्यापी मानता है। आत्मा के इस अटपटे स्वरूप के कारण वैशेषिकमान्य आत्मा परमात्मा बनना तो दूर रहा, ज्ञानगुण युक्त सामान्य आत्मा भी नहीं रहता । एकान्तनित्य आत्मा साधना के द्वारा अपने कर्म कालुष्य को, अपने स्वरूप को, अपने हित, कल्याण एवं लक्ष्य को जान भी नहीं सकता, न ही सर्वकर्मरहित होने की साधना करके परमात्मा बन सकता है। बौद्धदर्शनमान्य आत्मा का स्वरूप
बौद्धदर्शन आत्मा को एकान्त क्षणिक मानता है। एकान्त क्षणिक आत्मा तो क्षण-क्षण में नष्ट होतो तथा नई-नई उत्पन्न होती रहती है।
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