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आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ३६
और अचेतन (जड़) जो भी हैं, वे सब उसी मूल आत्मा का प्रपंच है। अर्थात्-वह ब्रह्म रूप आत्मा एक ही है अनेक नहीं। सारे ब्रह्माण्ड में एक ही आत्मा का पसारा है, आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वेदान्त दर्शन के मूल सूत्र हैं
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानाऽस्तिकिचन ।"1
__"एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म।" | वेदान्त-मतानुसार आत्मा एक ही है और कूटस्थनित्य तथा आकाशवत् सर्वव्यापी है। प्रत्यक्ष में जो भी नानात्व दृष्टिगोचर हो रहा है, वह आत्मा का अपना नहीं, मायाजनित है। परब्रह्म के साथ माया का सम्पर्क होते ही वह एक से अनेक हो गया, संसार बन गया। कितनी क्षुद्र कल्पना है यह आत्मा के लिए ! जब आत्मा एक है और सर्वव्यापी है तो देवदत्त, सोमदत्त, यज्ञदत्त आदि सभी व्यक्तियों का सुख-दुःख एक समान होना चाहिए, अलग-अलग अनुभूति क्यों ? एक धर्मिष्ठ और एक पापी क्यों ? लेकिन सबका अनुभव इसके विपरीत पृथक्-पृथक् होता है। वेदान्तमान्य आत्मा कूटस्थनित्य होने से उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में कर्ममलिन आत्मा रत्नत्रय-साधना या स्वरूपरमण साधना द्वारा शुद्ध रूप में परिवर्तित न हो सकेगी। फलतः उसका परमात्मा बनना असम्भव है। आकाशवत् निलिप्त सर्वव्यापी आत्मा के कर्मबन्धन भी नहीं होगा। बन्धन ही नहीं तो मोक्ष किस बात का ? फलतः सर्वव्यापी वह आत्मा आकाशवत होने से स्वर्ग-नरक आदि विभिन्न स्थानों में जाएगीआएगी भी नहीं । तब उसका पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म कैसे घटित होगा?
_____ सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मा अकर्ता है, वह कूटस्थनित्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा सदा-सर्वदा एक रूप रहेगा, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होगा । सुख-दुःख आदि जो भी परिणमन आत्मा में दिखाई देता है, वह सब प्रकृति का खेल है। आत्मा बिलकुल तटस्थ अकर्ता बना रहता है। प्रकृति ही कर्ता-धर्ता है । वही कर्मों की या प्रवृत्तियों की की है । आत्मा किसी भी प्रकार के कर्म का कर्ता नहीं है। आत्मा तो प्रकृति के खेल देखता रहता है, वह केवल द्रष्टा है। परन्तु जब
१ छान्दोग्य उपनिषद् ३।१४।१ २ वही, ६।२।१
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