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________________ ४२ ! अप्पा सो परमप्पा वादी अथवा चार्वाक, देवसमाज आदि की तरह जड़ाद्वैतवादी भी नहीं है। वह द्वैतवादी है। वह व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से आत्मा को तौलता है और उसका यथार्थस्वरूप इस प्रकार का बतलाता है, जिससे आत्मा परमात्मा बन सके । ___ आत्मा एक नहीं अनन्त हैं-व्यवहारदृष्टि से आत्मा एक नहीं है, प्रत्येक जीव की पृथक्-पृथक् है, और अनन्त है । सारी सृष्टि में एक और सर्वव्यापी आत्मा मानने से एक का सुख, सबका सुख और एक का दुःख सबका दुःख हो जाएगा, तथा एक का कर्मबन्ध सबका कर्मबन्ध और एक का मोक्ष सबका मोक्ष हो जाएगा, परन्तु अनुभव इसके विपरीत है । जैनदर्शन संसार में आत्मा को अनन्त मानता है। अनन्त का अर्थ है-जिसकी गणना न हो सके, जो काल की सीमा से बाहर हो, जिसका नाप तौल न हो सके, अन्त न आ सके । जैनदृष्टि से संख्या और काल की अपेक्षा आत्माओं का कभी अन्त नहीं होता। संसार में आत्माओं का कभी अन्त नहीं आया और न ही भविष्य में आएगा। यही कारण है कि अनन्तकाल से अनन्त आत्माएँ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा बनी हैं और मोक्ष में जा रही हैं। फिर भी उनका अन्त नहीं होता। जो अनन्त हैं, उनका अन्त आ जाए तब तो अनन्त शब्द ही निरर्थक हो जाए। एगे आया-आत्मा एक है, यह निश्चयदृष्टि से कथन है। इसका भावार्थ सही है कि द्रव्यदृष्टि से सब प्राणियों का आत्मा (स्वरूपतः) एक समान है । आत्मा सर्वव्यापी नहीं, शरीर प्रमाण होती है -एक विशाल कमरा है, उसमें रखे हुए दिये का प्रकाश बड़ा होगा, किन्तु अगर उसी दिये को एक छोटे-से घड़े में रख दें तो उसका प्रकाश उतने में ही समाविष्ट हो जाएगा। जैनदर्शनमान्य आत्मा प्रकाश के समान संकोच-विकासशील है। वह छोटे प्राणी के शरीर में छोटी और बड़े शरीर में बड़ी हो जाती है। जैसे अत्यन्त छोटे बच्चे के शरीर में आत्मा उतनी ही छोटी होती है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका शरीर उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों आत्मा का भी विस्तार होता जाता है। अर्थात्-प्राणी का जैसा और जितना छोटा या बड़ा शरीर होता है, आत्मा उतने में ही समाविष्ट हो जाती है । हाथी के शरीर में आत्मा हाथी जितनी बड़ी और कुन्थुआ के शरीर में उतनी ही छोटी हो जाती है । परन्तु होती है वह असंख्य प्रदेशात्मक और प्रत्येक १ स्थानांग सूत्र, स्थान १, उ. १, सू०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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