________________
आत्मा का अस्तित्व । ३३
(३) जैसे दर्पण में किसी वस्तु के पड़ते हुए प्रतिबिम्ब को देखकर, कोई व्यक्ति प्रतिबिम्ब को तो माने, किन्तु दर्पण को न माने, ऐसा हो नहीं सकता, वैसे ही ज्ञानगुण सम्पन्न आत्मा रूपी दर्पण में शरीर, इन्द्रियाँ, अवयव, मन, बुद्धि तथा अन्य पदार्थ विषयक ज्ञान का प्रतिबिम्ब पड़ता है। अतः ज्ञानगुणसम्पन्न आत्मा को माने बिना कोई चारा नहीं। शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि जड़ पदार्थ हैं, उनमें ज्ञान नहीं होता, आत्मा ही ज्ञानगुण से युक्त है,1 वही किसी प्रकार की शंका या जिज्ञासा कर सकता है, जड़ पदार्थ कदापि शंका या प्रश्न उठा नहीं सकता। जानी जाने वाली घट, पट आदि वस्तुएँ संसार में हैं हो, ऐसी स्थिति में उन्हें जानने वाले आत्मा का अस्तित्व माने बिना कोई चारा ही नहीं।
(४) 'मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ;' इस प्रकार का जो अनुभव होता है, वह आत्मा के बिना हो नहीं सकता । यदि यह माना जाये कि ऐसा अनुभव तन, मन या इन्द्रियों को होता है, तो जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्तावस्था में जो ज्ञान होता है, वह किसको होता है ? पंचास्तिकाय में स्पष्ट कहा है
जाणदि पस्सदि सव्वं, इच्छदि सुखं, विभेदि दुक्खादो। कुव्वति हिदमहिदं वा, भुजदि जीवो फलं तेसि ॥१२२॥
जो सबको जानता है, देखता है, सुख चाहता है और दुःख से डरता है, तथा कभी हितरूप कार्य करता है, कभी अहितरूप एवं उसके फल को भोगता है, वह जीव (आत्मा) है ।
अतः यह मानना चाहिए आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है ।
(५) आत्मा इन्द्रियों, मन, बुद्धि और अवयव आदि से भिन्न है क्योंकि इन्द्रियों आदि से जो ज्ञान होता है, वह उनके नष्ट हो जाने या खराब हो जाने पर भी स्मृति रूप में बना रहता है। जो प्राप्त ज्ञान को स्मृति रूप में सुरक्षित रखता है, वही आत्मा नामक पदार्थ है।
(६) कभी-कभी आँखों के सामने से कई चीजें गुजर जाती हैं, कानों से कई प्रकार की ध्वनि टकराती रहती हैं, नाक के पास से कई प्रकार की गन्ध भी गूजरती जाती है, फिर भी हम देख, सून या संघ नहीं पाते, इसका क्या कारण है ? इसका कारण है-इन्द्रियों के अतिरिक्त एक और
१ 'जे विन्नाणे से आया'
-आचारांग ११५१५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org