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आत्मा का अस्तित्व | ३१
परिव्राजक - " हम हवा को तो नहीं देखते, किन्तु हिलते हुए पत्तों को देखकर हम जान लेते हैं कि हवा चल रही है ।"
मद्दुक - 'अच्छा, यह बताइये कि फूलों की भीनी-भीनी सुगन्ध के जो परमाणु हमारी नासिका में प्रविष्ट हो रहे हैं, क्या आप उनका रूप देखते हैं ?"
परिव्राजक - "नहीं देख पाते ।"
मदुक ने फिर पूछा - "अरणि की लकड़ी में जो छिपी हुई आग है, क्या उसका रूप आपके दृष्टिपथ में आता है ?"
परिव्राजक - " वह तो नहीं आता ।"
मदुक—'आयुष्मन् ! क्या समुद्र के उस पार दृश्य पदार्थ हैं ?" परिव्राजक - "हाँ, हैं तो ।"
मद्दुक—“क्या आप समुद्र के उस पार के दृश्यों को देख पाते हैं ?" परिव्राजक - "नहीं जी !"
मद्दुक ने अपनी बात को समेटते हुए कहा - " आयुष्मन् ! जिस प्रकार परोक्षज्ञानी सूक्ष्म, दूरवर्ती एवं व्यवहित पदार्थों को जान देख नहीं पाता, किन्तु उस पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार हम अपूर्णज्ञानी यदि अतीन्द्रिय, अमूर्त, सूक्ष्म, व्यवहित या दूरवर्ती जीवास्तिकाय (आत्मा) आदि को जान देख नहीं पाते। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे पदार्थ हैं ही नहीं । वे किसी न किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं । सर्वज्ञों के तो प्रत्यक्ष हैं ही। जो प्रत्यक्ष होते हैं वे अनुमान के विषय हो सकते हैं । अतः आत्मा आदि अमूर्त अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्षवादियों के द्वारा अनुमान से मानने पड़ते हैं । सामान्य जनता सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती या अतीन्द्रिय अमूर्त को नहीं जान देख पाने पर भी उनके अस्तित्व को मानती है । तब फिर अमूर्त जीवास्तिकाय (आत्मा) नास्तिकों के दृष्टिपथ में न आने पर भी उसके अस्तित्व को मानने में क्या आपत्ति है ?"
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कहा भी है
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सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति
सर्वज्ञसंस्थितिः ॥
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- आप्तमीमांसा
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