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३० | अप्पा सो परमप्पा
मूढजन समस्त ज्ञेय और पर्यायों के बोधस्वरूप आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते, किन्तु उसे ( आत्मा को ) मानना तो पड़ता है ।
प्रत्यक्षवादी ने अपने परदादे को, प्रमातामह या प्रमातामही को नहीं देखा फिर भी उसे अनुमान से मानना पड़ता है कि मेरा पिता और दादा था, इसलिए दादे को जन्म देने वाला परदादा भी अवश्य होगा । इसी प्रकार उसे यह मानना पड़ेगा कि मेरी माता को जन्म देने वाले मातापिता के भी माता- ा-पिता अवश्य होंगे। आशय यह कि प्रपितामह, प्रमातायह या प्रमातामही प्रत्यक्षवादी के समक्ष अभी प्रत्यक्ष दिखाई न देने पर भी अनुमान, तर्क तथा आप्त पुरुषों के कथन ( आगम) से उसे उनका अस्तित्व मानना ही पड़ता है ।
प्रत्यक्ष न होने पर भी आत्मा का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता
कई चीजें इतनी सूक्ष्म होती हैं कि उन्हें हम अपनी इन आँखों से नहीं देख पाते, कोई वस्तु दूरवर्ती होती है, वह भी दृष्टिगोचर नहीं हो पाती । दीवार के उस पार या बीच के किसी व्यवधान से युक्त कोई वस्तु रखी हो, वह भी दृष्टिपथ में नहीं आती । परोक्षदर्शी मानव सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती पदार्थों को नहीं देख पाता, क्या इससे उस पदार्थ के अस्तित्व से इन्कार किया जा सकता है ? ज्ञान की अपूर्णता किसी भी द्रव्य के अस्तित्व को मिटा नहीं सकती ।
एक बार राजगृह निवासी मदुक श्रमणोपासक भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए जा रहा था । मार्ग में ही परिव्राजकों ने उससे पूछा- तुम्हारे धर्मगुरु श्रमण महावीर पांच अस्तिकायों का प्ररूपण करते हैं, क्या तुम उन पांचों को जानते देखते हो ?
मद्दुक ने उत्तर दिया--जो पदार्थ कार्य करता है, उसे हम जानते - देखते हैं, किन्तु जो पदार्थ कार्य नहीं करता, उसे हम नहीं जानते-देखते ।
परिव्राजक बोले- तुम कैसे श्रमणोपासक हो कि अपने धर्मगुरु द्वारा प्रतिपादित पंचास्तिकायों को जान देख नहीं सकते ?
मदुक ने उन्हें अपनी बात समझाने के लिए पूछा - "आयुष्मन् ! यह जो हवा चल रही है, क्या आप उसका रूप देख रहे हैं ?"
१ देखिये भगवती सूत्र में मदुक श्रमणोपासक और परिव्राजकों का संवाद ।
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