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________________ आत्मा का अस्तित्व | २७ जिस प्रकार धतूरे के फूल, गुड़ और जल आदि पदार्थ अलग-अलग रहते है, तब तक उनमें नशा चढ़ाने का गुण नहीं होता, किन्तु इन सभी पदार्थों को एकत्रित करके एकमेक कर दिया जाता है, तब उनमें नशा चढ़ाने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि चार भूत जब तक पृथक् पृथक् रहते हैं, तब तक उनमें चैतन्य शक्ति नहीं होती, किन्तु जब ये चारों भूतों का समुदाय एकत्रित हो जाता है, तब उनमें चैतन्य शक्ति प्रकट हो जाती है। यद्यपि मद्य बनाये जाने वाले पदार्थ पृथक-पृथक रहते हैं, तब तक उनमें मादकता की शक्ति दिखाई नहीं देती थी, तथापि उक्त पदार्थों के एकत्रित होने से मादकता का गुण प्रादुर्भूत हो जाता है और अमुक समय तक उनमें मादकगुण रहकर फिर पुनः वह मादकता की शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार पृथक-पृथक् चार भूतों में चैतन्य दिखाई नहीं देता किन्तु उनके एकत्रित होने से चैतन्य प्रादुर्भूत हो जाता है और अमुक समय तक रहकर फिर वह चैतन्य नष्ट हो जाता है। पृथ्वी आदि चार भूतों में ये सभी दार्शनिक चैतन्य (आत्मा) नहीं मानते । अगर उनमें चैतन्य माने तब तो स्वतन्त्र आत्मा का स्वीकार हो जाता है । आत्मसिद्धि शास्त्र में भी इसी से मिलती-जुलती एक शंका उठाई गई कि पहले पाँच भूतों या चार भूतों से शरीर बनता है, फिर इसमें जीव (चैतन्य) उत्पन्न होता है और शरीर के नष्ट होते ही वह नष्ट हो जाता है । आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है । श्रमण भगवान महावीर ने वायुभूति गणधर की पूर्वोक्त शंका का निराकरण इस प्रकार किया है कि तुम पृथ्वी आदि भूतों में चेतना नहीं मानते तब फिर उनके एकत्रित होने से उनमे चेतना कैसे प्रकट हो जाएगी ? धतूरे के फूल, गुड़ आदि से जो मद्य बनाया जाता है और उनमें नशा चढ़ाने का गुण उत्पन्न हो जाता है, उसका मुख्य कारण यह है कि जिन पदार्थों से मद्य बनता है, उनमें मादक (नशोला) तत्त्व रहा हआ है। इसी से उन पदार्थों के मिलाने से उनमें मादकता को शक्ति आ जाती है। तिलों के प्रत्येक दाने में तेल है, इसीलिए तो उनमें से तेल निकलता है। यदि तिलों में तैलीय पदार्थ न होता तो उनमें से कदापि तेल न निकलता। बालू के कणों में तैलीय पदार्थ नहीं है, इसलिए बालू के कणों को चाहे जितना पीसा जाय, उनमें से तेल कदापि नहीं निकलेगा। इसी प्रकार तुम्हारे मत से पृथ्वी आदि महाभूतों में चेतन्य नहीं है, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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