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________________ २६ | अप्पा सो परमप्पा अर्थात् - यही जन्म पहला है, और यही अन्तिम है। न तो पुनर्जन्म है और न ही पूर्वजन्म था । जब यह पंच भौतिक विशिष्ट चेतनायुक्त शरीर यहीं विनष्ट हो जाता है तो फिर आगे का विचार ही क्या करना है ? जब आत्मा ही नहीं है तब कर्म, कर्मफल, पुण्य-पाप या स्वर्ग-नरक कुछ भी नहीं है । जब आत्मा ही नहीं है, तब आत्मा के नाम से किसी भी धर्माराधना या आत्मिक साधना को करने की आवश्यकता नहीं । ये सब धर्म - कर्म व्यर्थ हैं । भौतिक सुख जितना लूट सको, लूट लो । भौतिक सुखोपभोग के लिए धन की आवश्यकता होती है तो यदि तुम्हारे पास धन न हो तो किसी से कर्ज ले लो । कर्ज न मिले तो लूट-पाट, चोरी, छीना-झपटी आदि से धन प्राप्त कर लो और मनचाहे सुखों का उपभोग कर लो। इस जीवन के पूर्ण होने के बाद आगे कुछ भी नहीं है, कहीं भी नहीं जाना है, जो कुछ सुख भोग करना है, यहीं करलो । फिर कहाँ सुख भोग का अवसर मिलेगा । इस प्रकार चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व को न मानने के कारण अन्ध भौतिकवादो, , कट्टर नास्तिक एवं प्रत्यक्षवादी हो गया । तज्जीव- तच्छरीरवादी नास्तिक सूत्रकृतांग सूत्र में 'तज्जीव- तच्छरीरवाद' का वर्णन आता है । वह भी चार्वाक दर्शन की तरह शरीर को ही आत्मा मानने वाला प्रत्यक्षवादी दर्शन था। वह भी पंच भौतिक शरीर को चैतन्य मानता था । वहां उसका निराकरण किया गया है । वायुभूति गणधर की शंका और समाधान विशेषावश्यकभाष्य आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का एक अद्भुत ग्रन्थ है । उसमें एक प्रकरण है - गणधरवाद । भगवान महावीर के संघ में जो ११ गणधर हुए हैं, उन्होंने प्रभु से मुनिधर्म दीक्षा लेने से पूर्व अपनीअपनी शंकाएँ उनके समक्ष प्रस्तुत की थीं और प्रभु ने उनकी शंकाओं का जो समाधान किया था, उसका उस ग्रन्थ में विशद निरूपण किया गया है । उसमें वायुभूति नामक तृतीय गणधर ने जो शंका व्यक्त की थी, वह इस प्रकार है पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के सम्मिलित होने से यह शरीर बनता है, और उसमें आत्मा नामक एक तत्त्व उत्पन्न होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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