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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ४०१ प्रति मोह, ममत्व, मूर्छादि न रखे । उन पर मेरेपन की छाप न लगाए । व्यवहार में उनके साथ सम्पर्क रखे, किन्तु निश्चय में उनके साथ एकत्व सम्बन्ध न जोड़े। स्थूल दृष्टि वाले लोगों को लगता है कि यह आत्मार्थी साधक परिवार, संघादि के प्रति कर्तव्यपालन तथा शरीरादि का आहारादि से पालन-पोषण करता हुआ भी सिर्फ आत्मा के साथ एकत्व कैसे साधे सूत्रकृतांगसूत्र में एक घटना का उल्लेख है-भगवान महावीर के पास दीक्षित होने के लिए जाते हुए आर्द्र ककुमार को रास्ते में ही गौशालक ने रोककर भ० महावीर के सम्बन्ध में ऐसा ही प्रश्न उठाया था कि तुम्हारे महावीर पहले तो एकाकी, मौन एवं आत्मध्यानी होकर विचरण करते थे, अब वे संघ के, स्त्री-पुरुषों के समूह के बीच में रहते हैं, प्रवचन करते हैं, शिष्यों की भीड़ को साथ लेकर चलते हैं, उन्होंने अपना आत्मार्थीपन छोड़ दिया। विरक्त आर्द्रककुमार ने इसका उत्तर दिया-भ० महावीर पहले अकेले विचरते थे, तब भी आत्मभाव में स्थिर रहते थे, और अब संघ के बीच रहते हैं, तब भी वे आत्मभाव में स्थित रहते हैं। एकमात्र आत्मा ही उनके उड़ने का परमात्मभावरूपी आकाश है। पूर्ण शुद्ध आत्मा ही उनकी साधना का एकमात्र साध्य और लक्ष्य है। अतः साधक चाहे जैसी दुष्परिस्थिति में पड़ जाए, लोगों की आलो. चना का शिकार बन जाए, चाहे वृद्ध होने से उपेक्षित और तिरस्कृत हो जाए, चाहे किसी भी संकट से घिर जाए । अगर वह निश्चय व व्यवहार के पूर्वोक्त रीति से समन्वय के पथ से आत्मा के साथ एकत्व साधे रहेगा तो उसे किसी प्रकार की चिन्ता, व्यथा, क्लेश या हैरानी नहीं होगी। धर्मसंग्रह में इस विषय में सुन्दर मार्गदर्शन दिया गया है "एगत्त-भावणाए न कामभोगे गणे सरीरे वा। सज्जइ वेरगगओ फासेइ अणुत्तरं करणं ।" कर्मोदयवशात् व्यवहारदृष्टि से प्राप्त कामभोग गण (संघ) या शरीर आदि के साथ रहता हुआ भी जो व्यक्ति विरक्त होकर उन पर १ सूत्रकृतांग सूत्र श्रु. २, आर्द्रककुमार प्रकरण से । २ धर्मसंग्रह (उपाध्याय मानविजयजी कृत) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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