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४०० | अप्पा सो परमप्पा
इन्द्रियाँ हैं, यह मेरा सम्प्रदाय है, यह मेरा बंगला है, कार है, ऑफिस है। ये और ऐसे ही बाह्य पदार्थों को जन्म से मृत्यु तक सदा के लिए अपने मान लेता है। यहीं आफत, समस्या या अशान्ति पैदा होती है, जब व्यक्ति निश्चय और व्यवहार दोनों को मिला देता है। अर्थात् -जैसे किसी ने कहा-'हम अकेले नहीं, पचास हैं।' तब वह व्यवहार से पचास को भी पूर्णतः यथार्थ (निश्चय) मान लेता है । पूर्वोक्त प्रकार से सदा के लिए अपने मान लेने पर जब इन अपने माने जाने वाले पदार्थों से वियोग होता है, अथवा जब ये अपने माने जाने वाले लोग या पदार्थ किनाराकसी या उपेक्षा करने लगते हैं, तब उस व्यक्ति को क्षोभ, दुःख या संक्लेश होता है । उसकी मानसिक शान्ति विदा हो जाती हैं, वह आर्तध्यान का मेहमान बन जाता है। इसलिए परपदार्थों के साथ विवशता से हुए मिथ्या एकत्व-अपनेपन से कर्मबन्धन, दुर्गति, दुर्बोध आदि का भविष्य में बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाता है।
निश्चय-व्यवहार दोनों दृष्टियों से समन्वय
अतः व्यवहार दृष्टि से आत्मा के साथ एकत्व साधने के लिए व्यक्ति शरीर, संघ, समाज आदि से कर्मोदयवशात् प्राप्त संयोग माने, व्यवहार के धरातल पर कर्मोदय प्राप्त वस्तुओं के मेरेपन का जो बोध होता है या है, उसे असत्य माने, सत्य नहीं। उसे केवल सम्पर्कजनित अनुभव माने । निश्चय के धरातल पर-यथार्थस्तर पर यह माने कि सही माने में मैं तो अकेला ही हैं। मेरी आत्मा के सिवाय मेरा अपना कोई नहीं है। जहाँ अन्तिम सत्य या निश्चयदृष्टि से वास्तविक तथ्य है, वहाँ मैं (आत्मा) अकेला हैं, मेरा कोई नहीं है, न में किसी का है, यही अनुभूति हृदयंगम हो जानी चाहिए। रोम-रोम में यह अनुभूति रम जानी चाहिए। यह अनुभूति सदैव साथ-साथ, और तीव्र रूप में बनी रहनी चाहिए। ऐसी स्थिति में आत्मार्थी व्यक्ति के लिए निश्चय-व्यवहार के समन्वय का सर्वोत्तम राजमार्ग यही है कि शरीरादि के साथ सम्बन्धित होते हुए भी वह उनके साथ अपना एकत्व-ममत्व स्थापित न करके अनासक्तिपूर्वक रहे, आत्मा के साथ ही एकत्व स्थापित करे। वह व्यवहार में कर्मोदयवशात् प्राप्त बाह्य साधनों या पर-पदार्थों को यथायोग्य या यथावश्यकरूप में अपनाए, उनका धर्माचरण में उपयोग करे, किन्तु अन्तर् में उन्हें बाह्य पदार्थ जान कर अपने (आत्मा) से भिन्न माने । अन्तर् में उन्हें अपने न माने। उनके
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