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एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३६६
करना चाहिए । बाह्यपदार्थों के साथ एकत्व- ममत्व सम्बन्ध जोड़ना, अज्ञान, मोह आदि में आत्मा को लिपटाना सर्वथा छोड़ देना चाहिए । आत्मविस्मृति से आत्मा एकाकी नहीं रहती
व्यक्ति जब आत्मबाह्य परपदार्थों-परद्रव्यों के प्रति अपनेपन का आरोपण कर लेता है, तब अपने आप ( आत्मा ) पर ध्यान नहीं दे पाता । मुंह से आत्मा के साथ एकत्व की बातें करते हुए भो वह बाह्यपदार्थों से सम्पर्क बनाए रखता है, तोड़ता नहीं । यही आत्मविस्मृतिरूप प्रमाद का मुख्य कारण है । यह मेरा है, ये मेरे हैं, इस प्रकार से मानने का अर्थ हैशुद्ध आत्मा को विस्मृत कर देना । परपदार्थों में मेरेपन की अनुभूति ही आत्मविस्मृति है, जो सबसे बड़ा प्रमाद है, वह अस्वाभाविक है, जबकि आत्मस्मृति स्वाभाविक है । पहली प्रयत्नसाध्य है, जबकि दूसरी प्रयत्नसाध्य नहीं है । आत्मा का जो स्वभाव है, स्वरूप है, उसे तो सदैव स्मरण रखना चाहिए ।
व्यवहारदृष्टि से आत्मा का एकाकित्व
कर्मोदयवशात् व्यवहारदृष्टि से शरीर, पुत्र, मित्र, कलत्र आदि जो बाह्यपदार्थ मिले हैं, उन्हें साधारण व्यक्ति कहता है- ये मेरे हैं । मैं इनक हूँ । इस व्यवहार को कैसे छोड़ा जा सकता है ? इसका उपयुक्त समाधान सामायिकपाठ में दिया गया है
न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ।
आत्मा से भिन्न, जो भी बाह्यपदार्थ हैं, शरीर, स्वजन आदि या धनादि, जिन्हें व्यक्ति अपने मानता है, वास्तव में ये उसके हैं ही नहीं । फिर भी आत्मा के एकाकित्व के लक्ष्य को छोड़कर अज्ञान मोहवश व्यक्ति अन्तर् में उन्हें अपने मानता है । व्यवहार के स्तर पर कर्मोदय से प्राप्त इन बाह्यपदार्थों को लेकर साधारण व्यक्तियों को कहने लगता है - मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा गण, संघ, परिवार आदि हैं । परन्तु निश्चय के धरातल पर भी यही राग अलापने लगता है कि ये ( परपदार्थ) भी मेरे हैं और आत्मा भी मेरी है - यह दोगली, दो घोड़ों पर एक साथ सवारी की - सी बात, आगे चलकर खतरनाक साबित होती है । जब व्यक्ति पहले से लेकर, अन्त तक यही मानता है कि मैं ( आत्मा ) अकेला नहीं हूँ । मेरे साथ अनेकों हैं - मेरा धन, मेरा मकान, मेरे स्वजन - मित्रजन एवं भाईबहिन आदि। यह मेरा हृष्ट-पुष्ट शरीर है, यह मेरी बुद्धि है, ये मेरी
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