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४०२ | अप्पा सो परमप्पा
आसक्ति-ममता नहीं करता है, वह साधक अनुत्तर-करण का स्पर्श कर लेता है।
ऐसे आत्मैकत्वसाधक में शुद्ध ज्ञायकभाव प्रकट हो जाता है । तभी वह मुक्ति (परमात्मप्राप्ति) की लहर के स्पर्श का अनुभव कर लेता है। यानी समस्त बाह्य जगत् से वह स्वयं (आत्मा) को बिलकुल स्वतंत्र अनुभव करने लगता है। शरीर और मन से अर्थात्-शरीर की पर्यायों और मन की पर्यायों से स्वयं (आत्मा) को पृथक् (भिन्न) देख सकता है, वह अपने कर्मकृत व्यक्तित्व से ऊपर उठ जाता है। वह यह हृदयंगम कर लेता है कि शरीर और मन के समस्त परिवर्तनों के बीच में अविनाशी आत्मा एक अखण्ड सत्ता के रूप में अचल रहता है। और समस्त बाह्य परिवर्तनों, प्राप्तियों, संयोगों और विचारों से आत्मा को अर्थात्-स्वयं को, कोई हानि-लाभ नहीं है । इस प्रकार को स्पष्ट दृष्टि खुलने से वह रति-अरति या राग द्वेष के भंवरजाल में फंसे बिना समभाव में स्थिर रहकर संकल्प-विकल्प की पकड़ से मुक्त हो जाता है। क्योंकि जो अपनी आत्मा को सबसे विविक्त (पृथक) सदानन्दमय मानता है, उसे न तो दुःख के प्रति द्वेष होता है, न ही सुख की स्पृहा होती है ।1।।
इस प्रकार जब आत्मा एकाकी हो जाता है, तब वह जगत् में रहता हुआ भी अलिप्त, अनासक्त, अमूच्छित और जागृत होकर साधना में आगे से आगे बढ़ता हआ एक दिन परमात्न (मोक्ष) पद को प्राप्त कर लेता है। शुद्ध आत्मा ही तो परमात्मा है । सामायिक पाठ में भी कहा है
विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्वे ।।
अगर तू आत्मा को परभावों-विभावों से विविक्त (पृथक्) और शुद्धरूप में देखता रहेगा, तो परमात्मतत्त्व में संलीन-विलीन हो जाएगा।
१ ततो विविक्तमात्मानं सदानन्दं प्रपश्यतः ।
नाऽस्य संजायते द्वेषो, दुःखे नाऽपि सुखे स्पृहा ॥ २ सामायिक पाठ श्लो. २६
-एजन श्लोक ५०३
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