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३९६ | अप्पा सो परमप्पा
लगी रहे, शुद्ध आत्म भाव (परमात्मभाव) में ही सतत स्थिर रह सकें और परमात्मपद (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त पद) को प्राप्त कर सकें। निश्चयदृष्टि की कसौटी व्यवहार से होती है
बहुत-से शास्त्रजीवी एवं विद्वान लोग आत्मा को निश्चय दृष्टि से शुद्ध, नित्य और ज्ञानमय मानते हैं, और परभावों एवं विभावों को अशुद्ध, अनित्य और ज्ञानरहित समझते हैं। इस पर लम्बी-चौड़ी व्याख्या भी वे करते हैं । अनेक अपेक्षाओं से जनता को वे यह तत्व समझाने का प्रयत्न भी करते हैं । परन्तु इस निश्चय को व्यवहार में उतारने से वे कतराते हैं। अथवा उतनी उच्च भूमि का न होते हुए भी वे एकान्त निश्चय को पकड़ लेते हैं और व्यवहार को-शुद्ध व्यवहार को शुद्ध भी छोड़ बैठते हैं । उनकी कसौटी तो तब होती है, जब वे शरीरादि बाह्य भावों (परभावों) के साथ एकत्व, ममत्व, माह का त्यागकर आत्मा के साथ ही एकत्व स्थापित करने की हितावह बात को जीवनव्यवहार में उतारते हैं। क्योंकि निश्चयदृष्टि की कसौटी व्यवहार से ही हुआ करती है ।
महर्षि याज्ञवल्क्य के आश्रम में धनपति के पुत्र धर्मकीर्ति ने आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिक आदि सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। शास्त्रपारंगत होकर जब वह अपने गांव में लौटा तो सारा गाँव उसके स्वागत के लिए उमड़ा। सभी ने उसकी विद्वत्ता की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की। पिता ने अपने पुत्र को योग्य समझकर अपने पैतृक व्यवसाय को सम्भालने और विवाह करने का प्रस्ताव रखा। किन्तु अध्यात्मविद्या के पण्डित धर्मकीर्ति ने इन सब लौकिक व्यवहारों को मायाजाल समझकर पारिवारिक दायित्वों को सम्भालने और विवाह करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। पिता ने उसे बहुत कुछ समझाया, परन्तु धर्मकीर्ति इन नाशवान सम्बन्धों को स्थापित करने के लिए कथमपि तैयार न हुआ । अन्ततोगत्वा उसके पिता महर्षि याज्ञवल्क्य के पास ले गए और उन्हें सारी आपबीतो कह सुनाई । महर्षि ने जान लिया कि धर्मकीति केवल पोथीपण्डित है। शाश्वत एवं शुद्ध आत्मा के प्रति उसकी निष्ठा परिपक्व नहीं है । इसके अन्तर में शरीरादि अशाश्वत पदार्थों के प्रति अनासक्ति और घिरक्ति नहीं है। उन्होंने धर्मकीर्ति को कुछ दिन आश्रम में रहने के लिए कहा । एक दिन उन्होंने धर्मकीर्ति को उपवन से फूल चुन लाने का आदेश दिया। जिस उपवन में धर्मकीर्ति फूल चुन रहा था, सयोगवश उसका मालिक वहाँ आ
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