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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३६५ एकत्व साध लेता है, तो शरीरादि बाह्य पदार्थों के प्रति जो अब तक ममत्व और एकत्व की भावना रही थी, वह भी मिट जानी चाहिए। इसकी कसौटी यह है कि साधक के शरीरादि बाह्य पदार्थों पर कोई प्रहार करे, उन्हें नष्ट करने का उपक्रम करे अथवा कोई मारने-पीटने-सताने, चीरने-फाड़ने या तोड़फोड़ करने लगे तो वह उस या उन निमित्तों पर जरा भी रोष या द्वष न करे, वह इस स्थिति को कर्मजन्य माने । इसी प्रकार शरीरादि के बढ़ने, फूलने, मोटा-तगड़ा होने, पुष्ट होने या बलवान होने अथवा धनादि साधनों के वृद्धिंगत होने पर अथवा अपना मनचाहा होने पर वह इसे भी कर्मजन्य माने, ऐसी स्थिति में राग, मोह, आसक्ति या ममत्व न करे। वैषयिक सुख या पदार्थनिष्ठ सुख को सुख न माने । 'व्यवहार सूत्र' में स्पष्ट बताया गया है1 जिस साधक ने इस प्रकार की भावना उपलब्ध · सिद्ध) करली है कि मैं देह से भिन्न हूँ, वह देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकृत उपसर्ग (कष्ट) के समय देह के विनष्ट होने पर भी उसे विषाद कैसे हो सकता है ? ___इससे भी आगे बढ़कर जिनकल्पी साधु जब आत्मा के साथ विशुद्ध एकत्व स्थापित कर लेता है, तब वह स्वयं को बिलकुल अकेला मानता है, संघ से पृथक अकेला ही रहता है । अकेले होने की स्थिति में किसी कष्ट, उपसर्ग या संकट के समय वह मन में जरा भी दुःख-संवेदन नहीं करता, बल्कि इस साधना के दौरान वह किसी से सहायता या सेवा लेना भी बन्द कर देता है। न तो वह दूसरों से सेवा लेता है, और न ही उन्हें सेवा देता है । न ही शिष्य बनाता है, और न ही रुग्ण होने पर शरीर की चिकित्सा करता है, न दवा लेता है । आत्मा के साथ शुद्ध एकत्व की ऐसी स्थिति समाधिमरण (भक्तपरिज्ञा, पादपोपगमन एवं इंगितमरण, संल्लेखनासंथारापूर्वक यावज्जीव अनशन, साधना के समय भी होती है । इसीलिए ऐसे समय में प्राचीनकाल के उत्कृष्ट साधक या तीर्थंकर, गणधर एवं आत्मार्थी मुनिवर एकान्त, शान्त, विक्षेपरहित स्थान अन्तिम समाधिमरण के लिए पसन्द करते थे, ताकि एकमात्र आत्मा का ही चिन्तन हो, आत्मा के साथ ही सतत लो १ अण्णो देहातो अहंताणत्त जस्स एवमुवलद्धं । सो किं विसहारिक्कं कुणइ देहस्स भंगे वि। -व्यवहार सूत्र पृष्ठ १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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