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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३६७ पहुँचा । धर्मकीति को बिना पूछे फूल तोड़ते देख वह कुद्ध होकर अपने हाथ में ली हुई कुल्हाड़ी तानकर उसे मारने दौड़ा। धर्मकीर्ति वहाँ से बेहताशा भागा और आश्रम पहुंचा। महर्षि के चरणों में गिरकर स्वयं को उपवन के स्वामी के प्रहार से बचाने की प्रार्थना करने लगा। तब तक उपवन का स्वामी भी वहां आ पहुँचा था। महर्षि ने धर्मकीर्ति से कहा-'वत्स ! यह शरीर तो नाशवान् है। उपवन का स्वामी तुम्हारे इस शरीर को ही तो नष्ट करना चाहता था। अविनाशी आत्मा को तो वह कोई क्षति नहीं पहुँचा रहा था ; न ही पहुँचा सकता था ; तब फिर तुम क्यों इतने भयभीत और अपने सिद्धान्त से विचलित हो गए हो ? धर्मकीर्ति कुछ भी न बोल सका। वह मन ही मन समझ गया कि सत्य क्या है ? महर्षि ने उसे समझाया-"वत्स ! यथार्थ में आत्मा ही अविनाशी है, शरीरादि सब नाशवान् हैं। किन्तु जब तक शरीरादि के साथ पूर्वकृत कर्मोदयवशात् सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, और आत्मा के साथ एकत्व की निष्ठा परिपक्व नहीं हो जाती, तब तक नाशवान् शरीर और शरीरसम्बद्ध पदार्थों को अपनाना पड़ता है। लेकिन उन पर अनासक्ति रखकर जल-कमलवत् निलिप्त रहना चाहिए। यही तो परमार्थ (निश्चय) और व्यवहार का समन्वय है। घर जाओ, और शरीरादि के प्रति अनासक्त रहते हए आत्म-कल्याण की साधना करो। आत्मा के प्रति निष्ठा परिपक्व हो जाने पर शुद्ध एकत्व की उच्च साधना को अपनाना।" __ आत्मा के साथ एकत्व-साधक की दूसरी कसौटी है-शुद्धता की। आत्मा अपने आप में शुद्ध है, कोरा है, उसमें मिलावट नहीं है। शुद्ध उपयोग की स्थिति में, या स्वभाव में जब आत्मा रहता है, तब वह शुद्ध कहलाता है । वह अशुद्ध होता है-परपदार्थों को अपने मानकर उनके साथ संयोग करने से और उनके प्रति आसक्तिपूर्वक एकत्व स्थापित करने से। साधक जब शुद्ध चेतना से ओत-प्रोत, निर्विकार निर्मल आत्मा को भूलकर अशुद्ध, वैकारिक या अशुद्धता-उत्पादक पर-पदार्थों, या विभावों के साथ घुल-मिलकर उनके साथ एकत्व स्थापित करने लगता है, तब अपनी आत्मा को अशुद्ध बना लेता है। शुद्ध आत्मा के साथ एकत्व के इस निश्चय को व्यवहार में उतारते समय साधक की कसौटी होती है। एक अध्यात्मज्ञानी प्रसिद्ध सन्त थे। हजारों की संख्या में उनके पास लोग आते थे। उनमें अच्छे भी आते, बुरे भी । एक दिन एक दुराग्रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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