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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३६१ परभाव हैं, वे अपने कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि वे अशाश्वत हैं, अशुद्ध हैं और जड़ (निर्जीव) हैं। जितने भी सजीव-निर्जीव पदार्थ हैं, वे सब पूर्वकृत शुभाशुभकर्म के कारण प्राप्त हुए हैं, संयोगजन्य हैं । वे संयोग परिवर्तनशील एवं अनित्य हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक न जाने कितने ही संगीसाथी और मित्र बनते हैं, मिटते-बिगड़ते हैं। पर क्या वे उसके थे ? शरीर के सम्बन्ध के कारण उसने उनके साथ सम्पर्क किया होगा। पर क्या आत्मा की दृष्टि से वे उसके सगे-सम्बन्धी या मित्र थे ? 'पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ?'1 "हे आत्मन् ! तू ही तेरा मित्र है। बाह्य मित्रों को क्या चाहता है ?' गहराई से सोचने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि बाह्य पदार्थों के साथ आत्मा का एकत्व कदापि नहीं रहा, न है और न होगा। कोई कहता हैशरीर के साथ आत्मा का एकत्व है। परन्तु शरीर के साथ आत्मा का एकत्व होता तो इस शरीर को आत्मा के साथ सदैव स्थायी रहना चाहिए। पर हम देखते हैं कि आत्मा के पृथक् होते ही लोग शरीर को फूंक देते हैं । मृत्यु आकर जब सिरहाने खड़ी होती है, तब परलोकयात्रा उसे अकेले ही करनी होती है, शरीर या शरीर से सम्बन्धित पुत्र, मित्र, पत्नी, मातापिता आदि कोई भी साथ में नहीं जाता। इसीलिए आचार्यश्री कहते हैं यस्यास्ति नक्यं वपुषाऽपि सार्धं, तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः । कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ?? जिसका अपने शरीर के साथ ही एकत्व नहीं है, तब शरीर से सम्बन्धित या शरीर को लेकर माने जाने वाले कल्पित पुत्र, पत्नी, मातापिता, मित्र आदि के साथ एकत्व सम्बन्ध तो हो ही कैसे सकता है ? यदि शरीर पर से चमड़ी उधेड़ कर उसे अलग कर दी जाए तो उसके जो रोम शरीर को छोड़कर अलग हो जाते हैं वे फिर शरीर के साथ नहीं रहते। इसी प्रकार आत्मा जब शरीर को छोड़कर अलग हो जाता है। तब शरीर १ आचारांग सूत्र श्रु०१ अ० ३ उ०३। २ सामायिक पाठ श्लोक २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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