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३६२ | अप्पा सो परमप्पा
को लेकर माने जाने वाले ये सम्बन्ध भी कैसे साथ रह सकते हैं ? वे तो शरीर के साथ ही समाप्त हो जाते हैं । अधिकांश शास्त्रजीवी इस दोहे को बार-बार दोहराते हैं
'देह विनाशी मैं (आत्मा) अविनाशी, बहिर्भाव हैं सारे । बाह्य पदार्थ सब नाशवान हैं, आत्मा से सब ही न्यारे ॥'
अतः शरीरादि समस्त बाह्य पदार्थ अनित्य हैं, नाशवान हैं, पद, प्रतिष्ठा, यश, सत्ता, धन, मकान आदि सब परिवर्तनशील हैं, अस्थायी हैं, जबकि आत्मा - शुद्ध आत्मा ही एकमात्र ऐसी है, जो शाश्वत है, नित्य है, अजन्मा है । शस्त्रादि उसे काट नहीं सकते, आग उसे जला नहीं सकती, पानी उसे गला नहीं सकता, हवा उसे सोख नहीं सकती । इन बाह्य पदार्थों से वह प्रभावित नहीं होती इसके अतिरिक्त आत्मा शुद्ध, निष्कलंक, कर्म-मल-रहित, निर्विकार ( रागादि विकारों से रहित ) है | अतः आत्मा निश्चय दृष्टि से सर्वथा शुद्ध है, जबकि शरीरादि सभी परभाव अशुद्ध हैं, अपवित्र एवं विकृत । प्रमाण के रूप में शरीरादि को ही देख लें। शरीर मलमूत्रादि से तथा रक्त, मांस आदि अपवित्र पदार्थों से भरा है । इसी प्रकार अन्य जड़ पदार्थों का भी यही हाल है । धन, मकान, दुकान, जमीन, जायदाद, कुटुम्ब, परिवार, जाति आदि समस्त पदार्थ अपवित्र हैं, विकृतिजनक हैं, आत्मा में रागादि विकार पैदा करते हैं, इनका संयोग-वियोग भी विकारजनक है, इसलिए अशुद्ध हैं । समस्त पौद्गलिक पदार्थ तो गलते सड़ते और बदलते रहते हैं इसलिए विकृत हैं ही । इसके पश्चात् आत्मा के साथ एकत्व का तीसरा ठोस आधार हैज्ञानमयता | आत्मा ज्ञानमय है, जबकि शरीरादि अन्य समस्त आत्मबाह्य पदार्थों में ज्ञान नहीं है; चैतन्य नहीं है। ज्ञान और चेतना एकमात्र आत्मा में है । आत्मा के अतिरिक्त जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे स्वयं चिन्तन, मनन, निर्णय, निश्चय नहीं कर पाते । अतः आत्मा और बाह्य पदार्थों में इन तीनों अन्तरों को समझ कर साधक को यह पक्का निश्चय कर लेना चाहिए कि आत्मा के साथ ही एकत्व या अभिन्नत्व सध सकता है, शरीर, पुत्र, मित्र, कलत्र, परिजन, धन, विषयसुख आदि के साथ कभी एकत्व या अभिन्नत्व नहीं सध सकता ।
केवलज्ञान होने पर आत्मा का पूर्ण एकत्व उसके साथ हो जाता है, क्योंकि शुद्ध - आत्मा ज्ञानमय है, और केवलज्ञान भी सिर्फ ज्ञानमय है ।
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