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३६० | अप्पा सो परमप्पा
ही सर्वांग - रसपूर्ण होती है । आत्मा के इस निर्द्वन्द्व अकेलेपन में व्यक्ति अपने (अपनी आत्मा) को ही पाता है; कर्मोदयवशात् जो शरीरादि या धन स्वजनादि प्राप्त हैं, उनको नहीं । उसके लिए सारा कमरा, सारा प्रान्त, समग्र राष्ट्र, सारा आकाश एवं समस्त ब्रह्माण्ड एकमात्र आत्मा से भरा होता है । उसका जीवनसूत्र यहीं बन जाता है
एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा । विनिर्मलः साधिगम-स्वभावः ॥ बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः । न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥
मेरी आत्मा सदैव एकाकी - अकेली और शाश्वत = अविनाशी है वह निर्मल = शुद्ध है, केवलज्ञान - स्वभावी है, ये शेष जितने भी पदार्थ हैं, वे सब बाह्य हैं, आत्मा से भिन्न हैं । व्यवहारदृष्टि से अपने माने - कहे जाने वाले जो भी बाह्य पदार्थ हैं, वे सब अशाश्वत - अनित्य हैं और कर्मोदय से प्राप्त हैं ।
आत्मा के साथ ही एकत्व क्यों ?
प्रश्न होता है, आत्मा के साथ ही एकत्व होना चाहिए, बाह्यपदार्थों (परभावों) के साथ क्यों नहीं ? इसका मूल कारण क्या है ? इसका समाधान आचार्य अमितगति ने स्पष्ट बता दिया है
" एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगम स्वभाव: "2
मेरी एक आत्मा ही ऐसी है, जो सदा शाश्वत (नित्य) है, निर्मल है, यानी कर्ममल से रहित, अथवा रागद्व ेषादि - विषय - कषायादि विकारों से रहित - शुद्ध है, तथा ज्ञान रूप स्वरूपवाली है ।
इस प्रकार आत्मा के साथ ही एकत्व होना चाहिए, बाह्य पदार्थों के साथ नहीं, इसकी कसोटी तीन प्रकार से की जा सकती है - ( १ ) सदानित्यता, (२) सदा शुद्धता और (३) सदा-ज्ञानममता ।
इस संसार में आत्मार्थी के लिए अगर कोई मेरी कहलाने योग्य वस्तु है तो वह आत्मा ही है, शेष समस्त पदार्थ आत्मबाह्य हैं,
१ सामायिक पाठ श्लो. २६ ( आचार्य अमितगति सूरि )
२ सामायिक पाठ श्लोक २६ ।
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