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________________ एकाको आत्मा : बनती है परमात्मा | ३८६ नकारात्मक है। किसी को पत्नी पोहर चलो गई, या बच्चे दूसरे शहर के किसी छात्रावास में रह रहे हैं। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति कहता है-आजकल तो बड़ा अकेलापन लगता है । ऐसा या इस तरह का द्वन्द्वात्मक अकेलापन अशान्तिदायक, अप्रसन्नतासूचक या परापेक्षित है। इस अकेलेपन में व्यक्ति दुःखी, परेशान, व्यथित, चिन्तित एवं उदास रहता है। दूसरे की अनुपस्थिति में होने वाले इस अकेलेपन में व्यक्ति की आँखें दूसरे को खोजती हैं। जो अल्पकाल के लिये गया है, उसके सम्बन्ध में, तथा जो सदा के लिए इस दुनिया से चला गया है, उसके सम्बन्ध में भी लोग नाना व्यथाओं, चिन्ताओं, शोक, क्रन्दन, मोहजनित विलाप आदि से दुःखित होते रहते हैं। ऐसे अकेलेपन में आकांक्षा या अपेक्षा छिपी हुई है कि जो गया है, वह वापस लौट आए, अथवा दूसरा आ जाता या रहता तो मुझे सुविधा या निश्चितता हो जाती। जैनसिद्धान्त की दृष्टि निर्द्वन्द्व अकेलेपन की है। इसमें व्यक्ति कभी उदास, चिन्तित, दुःखी और वेचैन नहीं होता। न तो वह अल्पकाल के वियोग में दुःखी होता है, और न ही सदा के वियोग में । इसमें किसो के प्रति 'मेरापन' नहीं होता, और न ही आकांक्षा, अपेक्षा या चिन्ता रहती है। इसमें अप्रसन्नता का अनुभव नहीं होता; क्योंकि यह अकेलापन स्वेच्छा से स्वीकृत है, स्वाभाविक है, बाध्यतारहित है। इसमें व्यक्ति की दृष्टि किसो दूसरे को नहीं खोजती। आत्मा अपनी ही मस्ती में, अपने ही ज्ञान-दर्शन-आनन्दरूप स्वभाव में रहती है। भगवद्गीता के अनुसार इस प्रकार की आत्मा के साथ एकत्व की साधना करने वाला व्यक्ति आत्मा में हो प्रोति करता है, आत्मा में ही तृप्त और सन्तुष्ट रहता है, आत्मा से सम्बन्धित प्रवृत्ति के सिवाय उसके लिए और कोई कार्य नहीं रहता। इसमें व्यक्ति अन्तरात्मा में हो सुख (आनन्द) पाता है, आत्मा में हो आराम और आत्मा से ही सम्यग्ज्ञानज्योति पाता है, ऐसा ज्ञानयोगो शुद्ध आत्मा सच्चिदानन्द रूप परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त होकर एक ब्रह्म-निर्वाण (परमात्मपद रूप मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है ।1 इस एकाकीपन में अपनी (आत्मा) की उपस्थिति १ (क) यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव : । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ -भगवद्गीता ३/१७ (ख) योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथाऽन्तज्योतिरेव यः ।। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ -भगवद्गीता ५/२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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