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________________ ३८८ | अप्पा सो परमप्पा सिद्धान्त में केवलज्ञान-केवलदर्शन कहा है। इसमें सिर्फ ज्ञान-दर्शनमय आत्मा रहता है । यही अकेलेपन की परिपूर्णता है । ___ इसके लिए 'बारस अणु वेवखा' के अनुसार सतत यही चिन्तन होना चाहिए एक्कोहं निम्ममो सुद्धो, गाण-दसण-लक्खणो । सुद्ध यत्तमुपादेयमेवं चितेह सव्वदा ।। मैं अकेला हूँ, ममत्व-रहित हूँ, शुद्ध हूँ और ज्ञान-दर्शन-स्वरूप हूँ। इस प्रकार का शुद्ध आत्मैकत्व ही उपादेय है। यों सदैव चिन्तन करना चाहिए। यही निश्च य दृष्टि से एकत्व है । आत्मा के अद्वैत और निर्द्वन्द्व अकेलेपन में अन्तर _ 'एगे आया' (आत्मा एक है) इस सूत्र के अनुसार 'आत्मैकत्व निर्द्वन्द्व है । इसमें अपना होना ही इतना गहन होता है कि अब दूसरे को कोई आवश्यकता या अपेक्षा नहीं रहती। न ही दूसरे की स्मृति रहती या होती है । वेदान्त के 'अद्वैत' (दो नहीं-अद्वितीय) में ऐसा ध्वनित होता है कि दो चीजों में संघर्ष है । जैसे-ब्रह्म और माया दो चीजें भी द्वैतवाद में प्रचलित हैं, उसका निराकरण करने हेतु 'अद्वैतवाद' कहता है-"ब्रह्म और माया दो नहीं, 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म'-इस विश्व में एक ही ब्रह्म है, दूसरा नहीं।" निर्द्वन्द्वरूप एकत्व में न तो संघर्ष है, न ही स्थिरता है, बल्कि ज्ञानादिरूप में गतिमत्ता का मधुर बोध होता है। जैसे-शीत और उष्ण दोनों का द्वन्द्व है। निर्द्वन्द्व का अर्थ है- इस प्रकार के द्वन्द्व रहित एकत्व । निर्द्वन्द्वात्मक अकेलेपन में दूसरे की बिलकूल अपेक्षा, स्मृति या आकांक्षा नहीं रहती। द्वन्द्वात्मक अकेलेपन में कालान्तर में दूसरे की अपेक्षा, या आकांक्षा रहती है। द्वन्द्वात्मक और निर्द्वन्द्व अकेलेपन में अन्तर जैनसिद्धान्त द्वारा निरूपित निर्द्वन्द्व अकेलेपन में किसी दूसरों की अपेक्षा या स्मृति नहीं रहती, जब कि आजकल के अधिकांश लोगों में द्वन्द्वात्मक अकेलापन होता है। संसारमोही जीवों का द्वन्द्वात्मक अकेलापन १ बारस अणुवेक्खा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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