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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३८७ (आत्मा) हो जाता है, हो जाता ही नहीं, बल्कि इस प्रकार का दृढ़निश्चय कर लेता है अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसण-णाण-मइओ सदाऽरूवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणु मित्तंपि ।। 'मैं (आत्मा) अकेला और बिलकुल शुद्ध हूँ, ज्ञान-दर्शनस्वरूप हूँ, सदैव अरूपी = अमूर्त हूँ तथा शुद्ध शाश्वत आत्मद्रव्य हूँ। परमाणुमात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।' ___ भगवान् महावीर का यहे अनुभव-पूर्ण सिद्धान्त है-एकोऽहम् - 'एगे आया ।' अर्थात्-मैं अकेला हूँ-शुद्ध आत्मा (निश्चयदृष्टि से) अकेला है । भगवान् महावीर का यह गहन एवं अनुभूत विश्लेषण है-मन-वचनकाया में जब तक दूसरा (पर) है, तब तक संसार है। दूसरे (परभाव) पर ध्यान रखना ही तो संसार है। दूसरे से अपने ध्यान को सर्वथा मुक्त कर लेना ही मोक्ष (परमात्मभाव) है। तभी तुम ‘एकोऽहं खलु सुद्धो'-शुद्ध एकाकी आत्मा हो सकोगे, जब परभावों की अणमात्र भी छाया तुम पर नहीं पड़ेगी। दूसरों (शरीरादि या रागद्वषादि-परभावों) से मुक्त होने पर ही शुद्ध आत्मा कहला सकोगे। आत्मा के अनुभव के लिए भी दूसरे का सहारा लेना पड़े तो वह अनुभूति भी पर-निर्भर हो जाती है, आत्मा से ही आत्मा का अनुभव शुद्ध और निज-सापेक्ष होता है। इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया 'संपिक्खए अप्पामप्पएण'2 अपनी आत्मा के द्वारा ही आत्मा का सम्प्रेक्षण करो। व्यक्ति इतना अकेला हो कि उसे अपने अकेलेपन का भी पता न चले । अगर अकेलेपन का आभास हो गया तो समझ लो, दूसरा अभी अन्तर् में उपस्थित है । अकेलेपन का पता तभी चलता है। जब दूसरे का स्मरण होता है, दूसरे की अपेक्षा या आकांक्षा मन में जागती है। जब परभाव की अपेक्षामूलक या आकांक्षामूलक स्मृति भी नहीं आए, मन से वह बिलकुल खो जाए, तभी आत्मा का अकेलापन सिद्ध, पूर्ण एक सफल हुआ समझो। इसी को जैन१. समयसार ३७ २. दशवकालिक सूत्र चूलिका १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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