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३८६ | अप्पा सो परमप्पा
वीतराग जिनेन्द्र अपनी आत्मशक्ति से ही परम-पद (सिद्ध-बुद्ध-मुक्तपरमात्मपद) प्राप्त करते हैं।
यह है-आत्मा के साथ एकत्व की साधना से प्राप्त आत्मशक्ति का परिचय ! आत्मिकरूप से अकेले रहने पर मनुष्य के जीवन और व्यक्तित्व में अगाध शक्ति, निर्भयता, निश्चिन्तता और अपूर्व क्रान्ति आ जाती है। ऐसा अनुभव व्यक्ति को तभी होता है-जब वह सभी ओर से पर-पदार्थों एवं व्यक्तियों का आश्रय, सहयोग एवं आलम्बन छोड़कर या छूट जाने पर एकमात्र आत्मा-अनन्तज्ञानादि से सम्पन्न शुद्ध आत्मा को ही अपनी अनन्तशक्ति का सम्बल मानकर चले ।
जब व्यक्ति अकेला-बिलकूल अकेला, केवल अपनी आत्मा के भरोसे पर रहता है, सिर्फ अपनी आत्मा के साथ रहता है, तब वह अपने विषय में गहराई से सोच सकता है। अपने-आप से खुलकर बातें कर सकता है। बल्कि जब वह नितान्त अकेला होता है, तब समाज, परिवार या अन्य व्यक्ति का उसे कोई दण्डादि का भय, संकोच या प्रतिष्ठा जाने का भय नहीं होता, इसलिए वह अपने में निहित गुण-दोषों का विश्लेषण कर सकता है, अपनी कमजोरियों और मजबूरियों का खुलकर आलोचन कर सकता है, आत्मा की निर्बलता और सबलता को पहचान कर वह दृढ़विश्वास के साथ आत्मशुद्धि का उपक्रम कर सकता है । इस प्रकार आत्मा को एकाकी भाव से भावित करके वह बाह्यपदार्थों, परभावों एवं राग-द्वषादि विभावों से अपना लगाव, मोह, आसक्ति, लालसा एवं ममत्व-अहंत्व अत्यन्त कम कर सकता है। आत्मिक सौन्दर्य का, आत्मा की अनन्तशक्तियों का, एवं आत्मिक आनन्द का दिव्यप्रकाश भी एकाको आत्मा को ही मिलतो है। आत्मा के साथ एकत्व साध लेने पर ही साधक को परमात्मभाव की दिव्य झांकी मिल जाती है, और एक दिन वह भी आत्मा के साथ पूर्णएकत्व साधकर केवलज्ञान की ज्योति से आलोकित हो उठता है और स्वयं सिद्धबुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है । निश्चयदृष्टि से आत्मैकत्व
निश्चयदृष्टि से आत्मा का एकत्व तभी सिद्ध होता है, जब व्यक्ति समस्त परभावों, एवं विभावों को संयोगजन्य, कर्मजन्य मानकर अथवा आत्मा से बाह्य मानकर, उनसे लगाव, ममत्व, आसक्ति या मोह राग आदि तथैव द्वेष, घृणा, वैर-विरोध आदि को सर्वथा हटाकर निपट एकाकी
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