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________________ एकाकी आत्मा : बनती है परमात्मा | ३८५ चन्द्रमा अकेला है, सूर्य अकेला है, यहाँ तक कि ईश्वर भी अकेला है । इन सबकी तुलना में मेरा अकेलापन है ही क्या ?" अकेला आदमी प्रायः बड़ी सावधानी से चलता है जबकि समूह के साथ चलने में प्रायः असावधान भी हो जाता है। एकाकी बनने पर व्यक्ति अपने आत्मबल को ही अन्तिम तथा शाश्वत मानकर आत्मावलम्बी बनने की प्रेरणा प्राप्त कर पाता है । अकेलेपन के अभ्यास से आत्मशक्ति बढ़ती है, जो परमात्मभाव की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध होती है । स्वामी विवेकानन्द ने अपनी अनुभवसम्पृक्त वाणी में कहा - 'महापुरुष सर्वाधिक शक्तिमान तभी होते हैं, जब वे अकेले खड़े होते हैं।" भगवान् महावीर के जीवन की एक घटना है। एक ग्वाले को जब अपनी गायें ध्यानस्थ भगवान् महावीर के पास नहीं मिलीं । तब पहले तो उसने उनसे पूछताछ की। भगवान् तो ध्यानस्थ थे, मौन थे, कैसे उत्तर देते । जब कोई उत्तर न मिला तो ग्वाला क्रुद्ध होकर उन्हें मारने-पीटने और गालियाँ देने लगा । आत्मशक्तिमान एकाकी भगवान् यह सब समभाव से सहन करते जा रहे थे । इसी बीच वहाँ इन्द्र आ गया । उसने उस गोपालक को भगवान् महावीर का परिचय दिया, समझाया और शान्त किया । इतने में भगवान् महावीर का ध्यान खुला । इन्द्र ने भगवान् के चरणों में श्रद्धावनत होकर प्रार्थना की- “भगवन् ! आपको ये अबोध लोग एकाकी और मोन देखकर इतना भयंकर कष्ट देते हैं कि मेरा रोम-रोम काँप उठता है । अतः अब मैं आपकी सेवा में रहकर आपकी सहायता करता रहूँगा । ऐसे अबोध लोगों को समझाता रहूँगा, ताकि आपको कोई कष्ट न हो और आपकी साधना निर्विघ्नता से चलती रहे ।" इस पर भगवान् महावीर ने कहा - "देवराज ! ऐसा कभी नहीं हो सकता । साधना निर्विघ्न हो या सविघ्न मेरे लिए इसका कोई महत्व नहीं है । मेरे पूर्वकृत कर्मों को मेरी अनन्तशक्तिमान् आत्मा ही काटेगी । दूसरे किसी की सहायता कर्मक्षय करने में अपेक्षित नहीं होती, अतः मुझे किसी से किसी भी प्रकार की सहायता नहीं चाहिए । साधक को केवल अपनी आत्मशक्ति के बल पर ही परम ( परमात्म) पद प्राप्त होता है, किसी दूसरे की सहायता के भरोसे पर नहीं और भगवान् महावीर के मुख से यह दिव्य ध्वनि गूंज उठी 'स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् ।' १ तीर्थंकर महावीर से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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