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३७० | अप्पा सो परमप्पा
ऐसे प्रतिबिम्बित हो जाए कि कषायों का अन्धड़ उसे बुझा न सके, विषयवासना की आंधी का झौंका उसे चंचल न बना सके, राग द्व ेषादि के तूफान उसे नष्ट-भ्रष्ट न कर सके, अज्ञान और मोह का पर्दा उसे तिरोहित न कर सके । प्रभु के ज्ञान का प्रकाश मेरे हृदय को सतत प्रकाशित करता रहे । उसमें बीच-बीच में कोई रुकावट या व्यवधान न आए। ऐसा तभी हो सकता है, जब साधक अपने अन्तःकरण को संकीर्ण, अनुदार और क्षुद्र ध्येय वाला न बनाए । परमात्मा के प्रति उसके हृदय में विनय, बहुमान एवं पूज्यभाव हो । श्रद्धा, भक्ति, जिज्ञासा और सद्भावना के साथ जो परमात्मा की दिव्य अव्यक्त प्रेरणा को ग्रहण श्रवण करने के लिए चातक की तरह पिपासु हो । जिसके अन्तर् का तार परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ हो । निर्मल, निश्चल होने के कारण जिसके हृदय का द्वार खुला हो, जिसका जिज्ञासु मन परमात्मा के प्रति अभिमुख एवं उत्सुक हो । तभी परमात्मा के दिव्य ज्ञान दीप का प्रकाश उक्त आत्मार्थी भक्त की हृदयगुफा में सतत प्रज्वलित एवं स्थिर रह सकता है ।
परमात्मा हृदयस्थ होने से लाभ : किसको और कैसे ?
परमात्मा ज्ञानमय हैं, उनका ज्ञान विश्वव्यापी है । इसलिए परमात्मा को जो साधक अन्तःकरण में विराजमान रखता है, वह अनन्तज्ञानी परमात्मा का अनुभवज्ञान प्राप्त कर सकता है । जैसे किसी निर्धन व्यक्ति के घर के आंगन में वन गड़ा हो, मगर उसे इस बात का पता न हो, तब तक वह निर्धनता एवं दरिद्रता का अनुभव करके नाना चिन्ताओं और उलझनों में डूबता उतराता रहता है। अपनी समस्याओं का सामना करने में हतोत्साह, निराश और उदास रहता है । उसे कोई सही मार्ग सूझता ही में नहीं है । यदि उसे कोई गड़ी हुई निधि का पता बता दे, तो उसके हृदय i आत्मविश्वास, आशा एवं उत्साह का प्रकाश जगमगा उठेगा । बताने वाले के प्रति भी श्रद्धा-भक्ति जागेगी । फिर तो धनवान और समृद्ध होने का यह ; विश्वास उसके जीवन के दृष्टिकोण को ही बदल देगा । इसी प्रकार अन्तः स्थित परमात्मा अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान एवं सीमित आनन्दयुक्त आत्मार्थी एवं जिज्ञासु साधक की आत्मा में निहित गुप्त एवं प्रच्छन्न अनन्तज्ञानादि
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१ मुनीश ! लीनाविव कीलिताविव स्थिरी निशाताविव विम्बिताविव । पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतो सदा, तमो धुनानौ हृदि दीपकाविव ।
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- सामायिक पाठ ४
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