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________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन | ३७१ गुणधन का पता अव्यक्त अन्तःस्फुरणा से लग जाता है। आत्मा में निहित विशिष्ट शक्तियों का ज्ञान भी परमात्मा द्वारा जिज्ञासु को मिल जाता हैं । परमात्मा का सान्निध्य जिज्ञासु आत्मार्थी की अन्तरात्मा में सुषुप्त शक्तियों तथा ज्ञान आदि की निधि के प्राप्त होने का विश्वास जगा देता है । ज्ञानमय परमात्मा के अन्तःस्थित होने से दूसरा लाभ यह है कि जैसे दीपक के प्रकाशित होने पर अन्धेरे में छिपे हए चोर, विषाक्त कोटाण, भयानक पत्थर या लूंठ, साँप, बिच्छू आदि जहरीले जन्तु, कांटे, कंकर; गंदगी के ढेर आदि का स्वतः पता लग जाता है, और व्यक्ति सावधान होकर चलता है अथवा अपने अभीष्ट कार्यों को निविघ्न कर पाता है। इसी प्रकार जिस प्राणी के हृदय के द्वार खुले होते हैं, उसे अन्तःस्थित परमात्मा के केवलज्ञान-दीप के प्रकाश में अपने हृदयभवन में पड़े हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि चोर स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, राग-द्वेष, क्लेश, दुष्कर्म आदि के विषाक्त कीटाणु भी साफ नजर आ जाते हैं, क्रूरता, स्वार्थान्धता, निर्दयता, प्रमाद, भय, शरीरासक्ति, विषयवासनाओं की तीव्रता की गंदगी का ढेर एवं दुर्गुण, दुश्चरित्र, दुर्बोध अज्ञान, मिथ्यात्व एवं दुर्भावरूपी काँटे आदि स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाते हैं। और हृदयस्थित परमात्मा के ज्ञानरूपी प्रकाश से वह अपने अन्दर रहे हए इन दोषों-दुर्गुणों आदि को जानकर शीघ्रातिशीघ्र भगा सकता है। और अपनी आत्मा को दूध-सा उज्ज्वल, स्फटिकसम पारदर्शी, मुक्ता के समान शुक्ल तथा चन्दन के तुल्य सुगन्धित एवं अमृत के समान शुद्ध बना सकता है और स्वयं परमात्मतुल्य बन सकता है। तीसरा लाभ यह है कि अपने अन्तर् में स्थित परमात्मा को तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा और हितैषी मानने से आत्मार्थी सदैव उनकी अनुभूतियों से लाभ उठा सकता है। जीवन की अटपटी समस्याओं में उसे सम्यक्मार्ग भी सूझ जाता है। एक बड़ा लाभ यह भी है परमात्मा को ज्ञातादृष्टा, तथा ज्ञान से सर्वव्यापक विराट मानने से आत्मार्थी साधक को यह प्रतीति रहती है कि मैं जो कुछ भी अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य करूंगा, उसके साक्षी परमात्मा हैं । वह मेरे घट में विराजमान हैं । अतः मुझे उनके देखते कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे स्व-पर का अहित हो, पापकर्म का बन्ध हो । साथ ही, परमात्मा की व्यापकता और विराटता पर पूर्ण विश्वास होने से वह सोचेगा कि 'प्रभु मेरे घट में भी विराजमान हैं वह सर्वत्र मेरे साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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