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________________ हृदय का सिंहासन : परमात्मा का आसन । ३६६ दिन महामंत्री पधारने वाले हों, उसी दिन एक मेहतर आकर अपना गंदगी का टोकरा वहाँ रख देने के लिए उस धनिक से अनुरोध करे तो क्या वह अपने महल में या महल के पास गंदगी का टोकरा रखने देगा ? हर्गिज नहीं । वह उक्त मेहतर से यही कहेगा- 'जल्दी से यहाँ से चला जा । मैंने अपने महल में महामंत्री को आमंत्रित किया है । तू यहां गंदगी रखेगा तो महामंत्री इस महल में पधारना बिलकुल पसन्द नहीं करेंगे ।' जिस प्रकार अपने महल में बड़े आदमी को आमंत्रित करने वाला धनिक वहाँ जरा भी गंदगी रखना पसंद नहीं करता। इसी प्रकार परमात्मा को हृदयभवन में विराजमान रहने और उन्हें सदैव वहाँ विराजमान देखने की प्रार्थना करने वाला व्यक्ति उस हृदय भवन को कामक्रोधादि विकारों से जरा भी मलिन एवं गंदा रखेगा, तो क्या परमात्मा वहाँ सदैव विराजमान रहना पसंद करेंगे या वे विराजमान दीखेंगे ? कदापि नहीं । परमात्मा का ज्ञान - प्रकाश हृदय में सतत स्थिर कैसे रहे ? जिस प्रकार स्विच ऑन कर देने पर भी बिजली एक बार प्रकाशित होकर बीच-बीच में कई घंटों तक चली जाती है तब पुनः अन्धकार छा जाता है । उसी प्रकार हृदयभवन का स्विच आन कर देने पर परमात्मा की आत्मगुणरूपी विद्य ुत का प्रकाश सतत स्थिर नहीं रह पाता । साधक के हृदयभवन पर अज्ञान, मोह आदि का अन्धकार पुनः छा जाने पर वह ज्ञान-प्रकाश लुप्त हो जाता है । साधक के दिव्य नेत्रों पर पर्दा पड़ जाता है । उसकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है । फलतः वह परमात्मा की दिव्यप्रेरणा, दिव्य आदेश, निर्देश एवं सन्देश को ग्रहण श्रवण नहीं कर पाता । पुनः उसका चिन्तन-मनन एवं पुरुषार्थ शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीवनिर्जीव पदार्थों को पाने की लालसा एवं आसक्तिपूर्वक उनका उपभोग करने की वृत्ति प्रवृत्ति में संलग्न रहना है। वह पुनः जागृत और सतर्क न हुआ तो मनःकल्पित आकांक्षाओं, आवश्यकताओं और पंचेन्द्रियविषयों की पूर्ति में ही मग्न रहता है । ऐसे व्यक्ति को अन्तःस्थित परमात्मा अपनी अन्तःस्फुरणा एवं अव्यक्त प्रेरणा से सावधान करता रहता है, फिर भी मोहनिद्रा, प्रमाद एवं गफलत में पड़ा रह जाता है और कामक्रोधादि विकार चोर उसका ज्ञानादि धन हरण कर लेते हैं । इसीलिए अपरिपक्व, किन्तु जिज्ञासु आत्मार्थी साधक संकल्पात्मक प्रार्थना करता है कि हे मुनीश प्रभो ! आपके ज्ञान की लो मेरे हृदय में अन्धकार निवारक दीपक के समान इस प्रकार लीन हो जाए, कीलित हो जाए, स्थिर होकर आसीन हो जाए, तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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