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हृदय का सिंहासन: परमात्मा का आसन | ३५६ ( शुद्ध आत्मा) से विमुख हो जाता है, उसका हृदय कोमल के बदले कठोर, पवित्र के बदले अपवित्र और कलुषित हो जाता है ।
जो प्राणी अपने हृदयमन्दिर के पट खोल देते हैं, परमात्मा के दिव्यज्ञानयुक्त सन्देश को ग्रहण करने के लिए उत्कण्ठित होते हैं, वे ही भव्य जीव उसके ग्रहण- श्रवण से लाभान्वित होते हैं । प्रकृति की ओर से भूमि के अनुरूप सर्वत्र वर्षा होती है, किन्तु उस वर्षा से ऊषर भूमि और जवासा का पौधा लाभ नहीं उठा पाता । स्वातिनक्षत्र में हुई वृष्टि की बूंदें तो सर्वत्र गिरती हैं, परन्तु सीप के मुख में पड़कर वे मोती बन जाती हैं, अन्यत्र नहीं । सूर्य उदय होते ही अन्य सभी फूल नहीं खिलते, किन्तु सूर्यमुखी पुष्प एवं कमल खिल उठते हैं ।
उसी प्रकार वीतराग परमात्मा का बोध तो सब जीवों के लिए होता है, किन्तु रसे ग्रहण कर पाते हैं - सुलभबोधि और भव्य जीव ही । श्रमण भगवान् महावीर चण्डकौशिक सर्प की बांबी पर उसे प्रतिबोध देने पधारे। उन्हें देखते ही पहले तो चण्डकौशिक ने अपने हृदय के पट नहीं खोले और स्वभावानुसार उनके अंगूठे को डस लिया । किन्तु फिर भी प्रभु महावीर को वहाँ अविचल खड़े देख, वह विस्मय-विमुग्ध होकर उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा । ऊहापोह के कारण उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया । पूर्वजन्म की अन्तिम समय की दुर्घटना उसके सामने चलचित्र की तरह साकार हो गई । उसकी जिज्ञासा बुद्धि जागी । अपने हृदय कपाट खोले । प्रभु के प्रतिबोधक वचनों को वह अमृत-सम पी गया । हृदय में भली-भांति उतर जाने के कारण उसने अपना सारा जीवन बदल डाला । उसका विषाक्त हृदय अमृतमय बन गया । वह कठोर से कोमल, अपवित्र से पवित्र और अनुदार से उदार बन गया ।
इसी प्रकार चिलातीपुत्र, रोहिणेय चोर, हत्यारे अर्जुनमाली एवं दृढ़प्रहारी आदि का कठोर और कलुषित हृदय भी तभी कोमल और पवित्र बना, जब उन्होंने अपने हृदय के पट खोले और उन उन महापुरुषों की पवित्र प्रेरणाएँ श्रद्धा से श्रवण और ग्रहण कर लीं ।
ये तो पौराणिक काल की कथाएँ हैं । वर्तमानकाल में महात्मा गाँधीजी का तो युवावस्था का जीता-जागता उदाहरण प्रसिद्ध है । जिसे वे अपनी आत्मकथा में स्वयं लिखते हैं । जब वे अपनी माताजी के समक्ष जैन सन्त श्री बेचरजीस्वामी से परस्त्रीसेवन, मांसाहार एवं मद्य
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