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________________ ६० | अप्पा सो परमप्पा पान के त्याग की प्रतिज्ञा लेकर विदेश गए। वहां उनके परस्त्रीगमन त्याग की प्रतिज्ञा की तीन बार कसौटी हुई। तीनों ही बार जब वे फिसलने को हुए, तब उनके हृदय में स्थित परमात्मा ने अन्तःस्फुरणा जागृत की और वे परमात्मा के उस अव्यक्त सन्देश को श्रवण-ग्रहण करके उक्त पापकर्म से बच गए, और अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे, क्योंकि उन्होंने अन्तःस्थित परमात्मा के दिव्य सन्देश को सुनने और ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के पट खुले रखे थे।1 हृदय के द्वार : किनके बन्द, किनके खुले ? __वैसे तो किसी भी प्राणी के हृदय के द्रव्य-पट या द्रव्य द्वार नहीं होते, किन्तु यहां हृदय के भावद्वार या भाव-पट से अभिप्राय है। एकेन्द्रियजीवों से लेकर चार इन्द्रियों वाले जीवों तक द्रव्यमन तो होता ही नहीं, वे असंज्ञी होने के कारण उनके भावमन ही होता है, वह भी सुषुप्त चेतना या मूच्छित चेतना से युक्त होता है। इसलिए उनके भाव-हृदय के भावपट या भावद्वार अवरुद्ध रहते हैं, वे परमात्मा के दिव्यसन्देश या ज्ञान के प्रकाश को ग्रहण-श्रवण करने में सर्वथा अक्षम रहते हैं। पंचेन्द्रियों के चार प्रकार हैं-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । उनमें से नारक जीवों में सम्यग्दृष्टि के सिवाय अन्य जीवों के हृदय के पट खुले नहीं होते । वे मिथ्यात्व, अज्ञान एवं मोह के तिमिर से आवत रहते हैं। देवों में भी सम्यग्दृष्टि देवों तथा उच्चजातीय देवों के सिवाय अन्य देवी-देवों के हृदयपट प्रायः बन्द रहते हैं। इसलिए जिनके हृदयद्वार बन्द रहते हैं, वे प्रभु के दिव्यसन्देश को ग्रहण-श्रवण करने में उत्सुक नहीं होते। वे वैषयिक सुखों में निमग्न होकर अपना देवायुष्य पूर्ण कर देते हैं । पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों में भी किसी-किसी जीव के पूर्वसंस्कारवश तथा पूर्वकृतपुण्योदय से हृदयपट खुल जाते हैं । वह तिर्यञ्चभव में भी अन्तःस्थित प्रभु के दिव्यसन्देश को श्रवण-ग्रहण कर लेता है और अपना जन्म सुधार लेता है, जीवन को उन्नत बना पाता है। राजगृही निवासी 'नन्दन मणिहार' एक समृद्ध धनिक व्यवसायी था, और भगवान् महावीर का बारहव्रतधारी श्रमणोपासक बना हुआ था। वह अष्टमी-चतुर्दशी आदि तिथियों में पौषधोपवास भी करता था। १ महात्मा गाँधीजी की आत्मकथा से सार संक्षिप्त २ देखिये-भगवतीसूत्र में नन्दनमणिहार का वृत्तान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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