SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का अस्तित्व ! २१ अधिकांश वैज्ञानिक थे, परमात्मा से और धर्म से वृणा हो गई । उन्होंने किसी भी परमात्मा को मानने से साफ इन्कार कर दिया। जब परमात्मा ही नहीं है तो आत्मा को मानने का कोई प्रश्न ही नहीं है। इस प्रकार उन्होंने आत्मा-परमात्मा को मानने से बिलकुल इन्कार कर दिया। कई लोग जो बाइबिल के Thou shalt not kill-'तू किसी जीव को मत मार', इस आदेश के होने पर भी मनुष्यों को मारने, सताने और घृणा करने में कोई संकोच नहीं करते थे। तथा कई लोग इस पवित्र आदेश के विरुद्ध कई जीवों को मार कर उनका मांस खाते थे, वे लोग भी अपने इस दुष्कृत्य पर पर्दा डालने के लिए कहने लगे-उन-उन जीवों में आत्मा ही नहीं है । हम आत्मा मानेंगे तो उन जीवों को मारने में पाप लगेगा। जब हम उन में आत्मा ही नहीं मानते तो उन जीवों को मारने और उनका मांसभक्षण करने में कोई दोष नहीं है। कुछ लोगों ने तो गाय जैसे विकसित चेतना वाले पंचेन्द्रिय जीव के लिए स्पष्ट कहने का दुःसाहस कर लिया 'Cow has no soul'. 'गाय के आत्मा नहीं होती।' ये और ऐसे ही कई लाग सब प्राणियों में आत्मा को अस्तित्व को नहीं मानते थे । कई बर्बर और नरभक्षी जंगली जाति के खूख्वार लोग भी आत्मा के नाम से अनभिज्ञ थे। वे धर्म-कर्म से बिलकूल अनभिज्ञ थे। उन्होंने आत्मापरमात्मा का नाम ही नहीं सुना था, न हो उन्हें आत्मा का अता-पता था, वे लोग मानव-जीवन का उद्देश्य खाना-पीना और सन्तान पैदा करना ही जानते थे, उन्हें आत्मा, परमात्मा के विषय में जानने-सोचने को कोई जिज्ञासा या उत्सूकता भी नहीं थो, ऐसे बर्बर लोग भी आत्मा-परमात्मा को बिलकुल नहीं जानते-मानते थे । पाश्चात्य जगत् में कई ऐसे नास्तिक लोग भी थे, जो इस मानव जीवन का उद्देश्य 'Eat, drink and be amerry'-'खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ (खुश रहो)', मानते थे। वे भी यह कहते थे कि क्यों आत्मा को मानकर दुःखी होते हो ? आत्मा को मानोगे तो परमात्मा को भी मानना पड़ेगा। साथ ही धर्म-कर्म, पुण्य-पाप आदि के विषय में भो उस आदेश को मानना पड़ेगा। इस प्रकार अपने सुखोपभोग में, स्वतन्त्रता में, अपनी इच्छानुसार मौज-शौक करने में, इन्द्रियों को मनमाने ढंग से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy