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________________ ३३२ | अप्पा सो परमप्पा होते हैं। यदि कोई मनुष्य सूर्य का आलम्बन लेना ही न चाहे, अपनी आँखें बन्द कर ले या अन्धकार मिटाना ही न चाहे तो सूर्य उसके लिए आलम्बन नहीं बनता। अतः संसार के पूर्वोक्त सारे परपदार्थ तटस्थ आलम्बन हैं । आन्तरिक आलम्बन आत्मा का अपना ही है । तटस्थ आलम्बन स्वयं अपने आप में किसी का आलम्बन नहीं बनता, कोई उसका आलम्बन लेना चाहे तो ले सकता है। जैनजगत में कई प्रत्येक बुद्ध हए हैं। उनमें से किसी ने बादलों का, किसी ने वक्ष, चूड़ी, स्त्री या बैल का आलम्बन लेकर उसके निमित्त से संसार से वैराग्य एवं बोध पाया। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा गण, शासक, गृहस्थ, धर्माचार्य एवं देव, गुरु, धर्म, शास्त्र आदि सब तटस्थ आलम्बन हैं। यह तो किसी पदार्थ का आलम्बन लेने वाले की योग्यता, क्षमता, रुचि, भावना आदि पर निर्भर है। महात्मा गांधीजी कहा करते थे-"जब भी मेरे समक्ष कोई अटपटी पेचीदा समस्या आती है, तब मैं गीता माता का आलम्बन लेता हूँ, मुझे शीघ्र ही उसका हल मिल जाता है।" यदि कोई आत्मिक दुर्बल मानव अपने अहंकाराविष्ट होकर किसी भी उत्तम पुरुष या प्रेरक पदाथ का आलम्बन लेना ही न चाहे या आलम्बनीय पदार्थ को तटस्थ न समझकर उस पर ही सारा भार डाल दे कि वही उसे बोध दे दे, उसका दुःख दूर कर दे या समस्या हल कर दे, या कोई महापुरुष वीतराग परमात्मा, धर्माचार्य या गुरु अथवा किसी भी महान् आत्मा का फोटो, छवि या मूर्ति उसे हाथ पकड़कर तार दे, संसारसागर से पार उतार दे, या उसका दुःख स्वयं दूर कर दे, ऐसा हो नहीं सकता । आलम्बन लेने वाला आलम्बन लेकर स्वयं पुरुषार्थ न करे या स्वयं प्रेरणा न ले तो वह भी कुछ नहीं कर सकता। भरत चक्रवर्ती ने शीशमहल का आलम्बन लिया, उन्होंने अंगूठी आदि आभूषणों के हटने से शरीरसौन्दर्य की अनित्यता का बोध लिया। शरीर और आत्मा की पृथक्ता का भेद विज्ञान होते ही उन्हें उसी आलम्बन से केवलज्ञान हो गया। शीशमहल या आभूषणों ने स्वयं चलाकर उन्हें कोई भेदविज्ञान नहीं दिया। उन्होंने स्वयं उससे बोध व भेदविज्ञान प्राप्त कर लिया था। एक बालक किसी पुस्तक के अक्षरों का आलम्बन लेकर वैसे ही अक्षर बनाने का प्रयत्न करता है। अभ्यास करते-करते वह पुस्तक को देखे बिना ही वैसे अक्षर बनाने लगता है । पुस्तक के अक्षर जहाँ के तहाँ हैं। उन्होंने पुस्तक से उठकर बालक की कोई सहायता नहीं की। बालक ने उन अक्षरों का आलम्बन लिया, इस लिए वे उसके लिए तटस्थ आलम्बन (निमित्त) बन गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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