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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३३३
वीतराग परमात्मा भी इसी प्रकार के तटस्थ आलम्बन 'नमोत्थुणं' (शक्रस्तव) में वीतराग परमात्मा को तिन्नाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं' (स्वयं संसार सागर को पार करने और दूसरों को पार कराने वाले, स्वयं बोध प्राप्त करने और दूसरों को बोध प्राप्त कराने वाले तथा स्वयं मुक्त होने वाले व दूसरों को मुक्त कराने वाले) कहा गया है, इस दृष्टि से तो वीतराग परमात्मा साक्षात् आलम्बनदाता हो गए, किन्तु यह तो भक्ति की भाषा है। वास्तव में परमात्मा किसी को हाथ पकड़ कर तारने, बोध प्राप्त कराने या मुक्त कराने वाले या चलाकर पार करने वाले आदि नहीं है, जो साधक तरना, बोध पाना या मुक्त होना चाहता है, या जो उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर मोक्षमार्ग की या परमात्मभाव की सतत् साधना करना चाहता है, उसके लिए वे तटस्थ आलम्बन (सहायक) बन जाते हैं। किन्तु जो तरने या मुक्त होने के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर पुरुषार्थ नहीं करता, हिचकिचाता है, प्रभु पर तैराने, पार उतारने या मुक्ति दिला देने का भार डाल देता है, उसे वे हाथ पकड़ कर या जबरन उठाकर नहीं तारते हैं, न मुक्त कराते हैं । इसलिए कहा गया 'वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्'1 प्रभो ! आप संसार समुद्र में गिरते हुए मनुष्यों के लिए आलम्बन रूप हैं।
मरुदेवी माता ने कोई भी बाह्य आलम्बन (व्यावहारिक रत्नत्रय, साधु वेष आदि) नहीं लिया, वीतराग ऋषभदेव प्रभु को देखकर उनके मन में उनके प्रति जो मोह था, वह समाप्त हो गया। उनके अन्तर् में केवल ज्ञान की ज्योति जगमगा उठी ।
इसमें भगवान् ऋषभदेव को बाह्य तटस्थ आलम्बन कहें तो कह सकते हैं । मुख्य आलम्बन तो उनकी आत्मा ही थी।
निष्कर्ष यह है कि निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मतत्त्व ही एकमात्र आलम्बन है, किन्तु दुर्बल एवं अपूर्ण आत्मा व्यावहारिक दृष्टि से वीतराग परमात्मा तथा गुरु, धर्म, (रत्नत्रय रूप) शास्त्र तथा अन्य किसी भी पदार्थ का आलम्बन निश्चयदृष्टि को लक्ष्य में रखकर ले तो वह भी परमात्मभाव को प्राप्त कर सकता है, आलम्बन ग्रहण कर्ता की दृष्टि, वृत्ति, प्रवृत्ति एव उद्देश्य शुद्ध एवं स्पष्ट होना चाहिए।
१ भक्तामर स्तोत्र, काव्य १
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