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________________ आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३३१ वह निरालम्बन नहीं, पौद्गलिक सुखावलम्बन है। वह स्वच्छन्दता एवं अहंकारवृद्धि का कारण है । इसके साथ ही संघ या सार्मिक साधु आदि का आलम्बन लेने पर भी यदि उनसे अशुभ कर्मबन्ध होता हो, अहंकारादिवश साथी साधु या शिष्यादि उसको हितकारी बात को भी माननेसुनने को तैयार न हों तथा उसके साथ रहने से अपनी आत्मा भी संक्लिष्ट, आर्तध्यानाविष्ट-सी पतित हो रही हो तो ऐसी स्थिति में उन सार्मिक साधुओं, शिष्यों या संघ आदि का आलम्बन छोड़ा भी जा सकता है। जैसे-गार्याचार्य एक बहुत ही आचार-विचार सम्पन्न, जागृत आत्मार्थी साधक थे। उन्होंने कई शिष्य बनाये तो थे परमात्मभाव (मोक्ष) प्राप्ति की साधना में मार्गदर्शन देकर सहायता करने तथा संघसेवा करके कर्मनिर्जरा करने के लिए। परन्तु उनके सभी शिष्य अविनीत, स्वच्छन्द और कुपथगामो निकले । वे आचार्य को एक भी हितकर बात को मानते नहीं थे। उन्हें सुधरने का उन्होंने मौका भी दिया, परन्तु जब वे न सुधरे तो गााचार्य ने उनका आलम्बन छोड़ दिया और अनासक्त, विरक्त एवं पाप कर्म से दूर रहकर एकाकी विचरण करने लगे। सभी बाघ आलम्बन तटस्थ आलम्बन हैं वास्तव में ये जितने भी बाह्य आलम्बन हैं, वे तटस्थ आलम्बन हैं। वे अपने आप में चला कर किसो का आलम्बन नहीं बनते, किन्तु कोई व्यक्ति अगर उनका आश्रय लेना चाहे, उसके लिए आलम्बन बन जाते हैं । जैसे मछली के लिए पानी आलम्बन माना जाता है। परन्तु वह आलम्बन तभी बनता है, जब मछली उसका आलम्बन लेना चाहे । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जीवों के लिए क्रमशः गति और स्थिति करने में आलम्बन भी तभी बनते हैं, जब वह आलम्बन लेना चाहे । सूर्य उदय होता है, तब चारों ओर का सारा अन्धेरा दूर हो जाता है, सर्वत्र प्रकाश हो प्रकाश हो जाता है । पशु, पक्षी, मानव आदि सब प्राणी सूर्य का आलम्बन लेकर अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। सूर्य किसी को जागने, उठने तथा अपने प्रकाश से पदार्थों को देखने एवं कार्यों में प्रवृत्त होने को नहीं कहता, न ही वह चलाकर आलम्बन बनता और प्रेरणा करता है। पशुपक्षी, मानव आदि स्वयं सूर्य का आलम्बन लेकर विविध कार्यों में प्रवृत्त १ गार्याचार्य के वृत्तान्त के लिए देखिये उत्तराध्ययन सूत्र का २७ वां खलुकिज्ज अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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