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________________ ३२२ | अप्पा सो परमप्पा से संघ के प्रत्येक सदस्य के सुख-दुःख, विपत्ति-सम्पत्ति आदि में, धर्मश्रद्धा से विचलित होते समय सहारा देने में, धर्म में स्थिर करने में, धर्माचरण में आने वाली विघ्न-बाधाओं को हटाने में, धर्माचरण करने के लिए धर्मोपदेश, धर्मक्रियाएँ धर्म के जप-तपादि विविध अनुष्ठान के लिए केन्द्र स्थान बनाने, एक-दूसरे को धर्माचरण की प्रेरणा देने, दानादि धर्म के लिए उत्साहित करने, धर्माचरण का माहौल बनाने में संघ के सदस्य सामि वात्सल्य से प्रेरित होकर एक-दूसरे के सहायक (आलम्बन) बनते हैं । साधु के लिए 'गण' सूदूर अपरिचित देश-परदेशों में भ्रमण करने, धर्मप्रचार करने तथा जनता को धर्मसम्मुख करने एवं धर्माचरण की प्रेरणा में सहायक बनता है। गण के सदस्य साधुवर्ग की कल्पनीय आहार-पानी, वस्त्रपात्रादि तथा औषध-भैषज, पथ्य-पदार्थ आदि से सेवा करते हैं । गण से जुड़े रहने पर गण का कोई भी साधु या साध्वी बीमार पड़ जाय या कष्ट या विपत्ति में पड़ जाए तो दूसरे साधु उस साधु की तथा साध्वियाँ उस साध्वी की सब प्रकार से यथोचित सेवा करती हैं। इस प्रकार 'गण' भी धर्मपालन में बहुत बड़ा आलम्बन बनता है। धर्माचरण में शासनकर्ता का आलम्बन प्राचीन काल में राजतंत्र था, इसलिए राजा शासन करता था, अब जनतंत्र है, इसलिए जनता में से चुने हुए विशिष्ट प्रतिनिधि राष्ट्र की विविध व्यवस्था संभालते हैं। धर्माचरणकर्ता गृहस्थ वर्ग के जीवन में आर्थिक, सामाजिक, नैतिक व्यवस्था में आने वालो अड़चनों को दूर करने में, तथा धर्मनिष्ठ व्यक्तियों पर अन्याय, अत्याचार, ज्यादती. मारपीट आदि करने वालों पर यथोचित्त नियन्त्रण करने तथा न्याय दिलाने में शासक तंत्र सहायता देता है। धर्मात्मा गृहस्थ के जान-माल एवं शील तथा धर्म पर संकट आने पर शासन रक्षा करता है। इसी प्रकार साधु-साध्वी वर्ग के शील, धर्म, तप, त्याग, धर्मानुष्ठान आदि पर संकट आने पर या दुष्टों एवं अत्याचारियों से रक्षा करने में शासकतंत्र सहायक बनता है। इसलिए शासनकर्ता वर्ग भी धर्मसाधक के लिए विशिष्ट आलम्बन है । गाथापति (गृहस्थ) भी धर्माचरण में आलम्बन रूप गाथापति उस गृहस्थ को कहते हैं, जो गृहस्थजीवन की नैतिक- . धार्मिक मर्यादाओं का पालन करता हो, जिसके जीवन में प्रशंसनीय गृहस्थ : धर्म हो । ऐसा प्रशस्त गृहस्थ आहार, विहार, रोग, आतंक, संकट, विपत्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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