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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३२१
करने का प्रयत्न भी वे बहत ही कम कर पाते हैं। मनोज्ञ विषयसुखों के प्रति जहाँ रागभाव होगा, वहाँ अमनोज्ञ विषयों के प्राप्त होने पर द्वष भी होगा, घृणा और अरुचि भी होगी। देवों में विषयोपभोगों की प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध आदि भी कम नहीं है। इसलिए धर्माचरणपरायण साधक ऐसे देवजीवन की तथा विषयसुखों की आकांक्षा कभी नहीं करेगा जिससे उसे आत्मभाव-परमात्मभाव से विमुख होना पड़े । अतः देवजीवन से विरक्ति, अनासक्ति, निष्कांक्षता, अनिदानभाव तथा कर्मक्षयरूप धर्मजीवन के प्रति निष्ठा, भावना आदि प्रेरणात्मक आलम्बन वह ग्रहण कर सकेगा।
धर्माचरण कर्ता के लिए 'गण' का आलम्बन 'गण' से यहाँ अभिप्राय 'धर्मसंघ' से है। धर्मपालन के लिए व्रतबद्ध या नियमबद्ध समविचार-आचारवाला जनसमूह गण कहलाता है। इस वर्तमान युग में गच्छ, पंथ, सम्प्रदाय, सभा, धर्म संस्था आदि विभिन्न नाम प्रचलित हैं। यह श्रमण भगवान् महावीर द्वारा रचित श्रमण-श्रमणी, श्रावक श्राविकारूप चतुर्विध विशाल श्रमण संघ की ही एक इकाई है। कहीं-कहीं इसे धर्मसंघ' भी कहते हैं।
___ गण भी सामुहिक रूप से धर्मपालन करने में आलम्बन रूप बनता है । कोई भी गृहस्थ या साधु अकेला अलग-थलग रहता है तो वह धर्माचरण के लिए उत्साहित नहीं होता। वह स्वयं भी प्रायः भौतिक जीवन को सर्वस्व मानकर उसी में ग्रस्त रहता है। फलतः उसका सारा परिवार प्रायः उसी साँचे में ढलता है। जब वह 'गण' से जुड़ जाता है, तो उसके अनुशासन, नियम और आचार-विचार के अनुसार उसका जीवन निर्मित होता है। फलतः अपने परिवार को भी वह अपने पदचिन्हों पर चला सकता है, धर्मध्यान एवं धर्माचरण के संस्कारों से संस्कारित कर सकता है। बहत्कल्पभाष्य में बताया गया है कि जिस गच्छ (गण या धर्मसंघ) में सारणा, वारणा और पडिचोयणा नहीं है, संयमाकांक्षी साधक को उस गच्छ का आलम्बन छोड़ देना चाहिए, वह गण गण नहीं है। संघबद्ध होने
१ जहिं णत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्वो ॥
-बृहत्कल्पभाष्य ४४६४
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