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________________ ३२० / अप्पा सो परमप्पा पंचेन्द्रिय नारक भी धर्माचरण में अवलम्ब बनते हैं पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्यों और तिर्यञ्चों के अतिरिक्त नारक (नैरयिक) भी आते हैं, भला एक धर्माचरणकर्ता के जीवन के लिए वे कैसे आलम्बन बनते हैं ? नारक जीव तिर्यक्लोक (मनुष्यलोक) से बहुत दूर हैं मनुष्यलोक की पृथ्वी से नरकलोक की पृथ्वी बहुत दूर है । उसे वैदिक ग्रन्थों में पाताललोक कहा गया है। इसलिए वैसे तो नारकीय जीव (नैरयिक) मनुष्यों के लिए प्रत्यक्ष रूप से आलम्बन नहीं बनते, किन्तु वे परोक्ष रूप से प्रेरणात्मक आलम्बन बन सकते हैं । नारकों की परस्पर संक्लेशमय, यातनामय, शारीरिक मानसिक व्यथाओं से पीड़ित, भयावह एवं घृणित असहाय परिस्थिति तथा आर्त्त-रौद्रध्यान से परिपूर्ण मनःस्थिति एवं उनकी कालोकलूट, बेडौल, भयंकर आकृति व शरीर रचना आदि को आगमों से पढ़-सुनकर किस धर्मनिष्ठ साधक का दिल दहल नहीं उठेगा ? साथ ही वहाँ की अत्यन्त शीत एवं अतीव उष्ण क्षेत्रीय परिस्थिति, तथा ऊबड़खाबड़ असुविधाजनक आवास, अत्यन्त यातनाओं से भरी लम्बी लम्बी आयु, तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सिवाय प्रायः मिथ्यात्व, अज्ञान, दुर्बोध, राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि दुर्भावों तथा अशुभ कर्मों से घिरी हुई बेचारे नारकों की आत्माएं स्वभाव-चिन्तन या शुद्ध आत्मभावों में रमण कर ही नहीं सकतीं । इन और ऐसी ही नारकों की उत्पत्ति, स्थिति और मनःस्थिति, परिस्थिति के कारणों पर दीर्घदृष्टि से धर्माचरणपरायण मानव गहन चिन्तन करता है तो वह अवश्य हो अपनी आत्मा को ऐसी दुष्परिस्थिति और शोचनीय निम्न-स्तर की वृत्ति-प्रवृत्ति में तथा पापाचरण एवं अधर्माचरण में डालने को कदापि तैयार न होगा। वह नरक में उत्पन्न होने के कारणों से अवश्य बचने का प्रयत्न करेगा। वह मनुष्य जीवन में धर्मनिष्ठ रहकर तप, त्याग, वैराग्य, तितिक्षा, समभावपूर्वक परीषह-उपसर्ग-सहिष्णता, दया, क्षमा, सन्तोष, शील आदि गुणों तथा रत्नत्रयरूप धर्म की अधिकाधिक साधना करेगा, शुद्ध आत्म-भाव में तीव्रतापूर्वक रमण करेगा। पंचेन्द्रिय देव भी धर्माचरण के लिए आलम्बन देवों का जीवन केवल वैषयिक सुखभोग के लिए है, वहां कर्मक्षय का, मोक्ष प्राप्त करने का पुरुषार्थ प्रायः नहीं हो पाता। फिर देव स्वर्ग के पंचेन्द्रिय विषयसुखों में इतने आसक्त हो जाते हैं कि नया पुण्य उपार्जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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