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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३०७
दूसरे पदार्थ के आधार (आश्रय या आलम्बन) से नहीं रहता । यहाँ तक कि एक आत्मा (जीव) दूसरी आत्मा (जीव) के आलम्बन (आधार) पर नहीं रहता । जैसे-एक घडे में घी भरा है। व्यावहारिकदृष्टि से लोग उसे घी का घड़ा कह देते हैं। किन्तु निश्चयदृष्टि से घो, घी में है और घड़ा, घड़े में है। घी, घी के आधार से रहा हआ है, घड़ा घड़े के आधार से । घो के बिगड़ने पर घड़ा नहीं बिगड़ जाता, तथैव घड़े के बिगड़ जाने से भी घी नहीं बिगड़ जाता, क्योंकि घड़ा और घी भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं । वैसे ही आत्मा भी देह आदि से भिन्न है । अतः वह (आत्मा) किसी अन्य द्रव्य या दूसरे जोव के आलम्बन से नहीं रहता। अपितु अपनी आत्मा के आधार (आलम्बन) से है। प्रत्येक पदार्थ जैसे अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अपने रूप में है पररूप में नहीं, इस दृष्टि से प्रत्येक आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की अपेक्षा से अपने रूप में है, पररूप नहीं है । निष्कर्ष यह है कि निश्चयदृष्टि से प्रत्येक आत्मा परपदार्थों या अन्य आत्माओं की अपेक्षा से निरालम्बो है। परपदार्थों का आलम्बन आत्मा का धर्म भो नहीं है। परद्रव्यों या परपदार्थों का आलम्बन छोड़ने से ही आत्मा निरालम्बी बनती है। इसलिए परमात्मा या शूद्ध आत्मा अपने आप में निरालम्बो है। वह निरालम्बी होकर ही आत्मा के शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र में प्रवृत्त हो सकता है।
इस दृष्टि से यह निश्चित हुआ कि आत्मा अपने ही शुद्ध आत्मतत्त्व का आलम्बन है । नियमसार में यही कहा गया है--
आलम्बणं च मे आदा । मेरा अपना आत्मा हो मेरा एकमात्र आलम्बन है ।1
यही कारण है कि ज्ञानी महापुरुष (वीतराग परमात्मा) भी यह नहीं कहते कि 'तू मेरा आश्रय (अवलम्बन) ले कर रुक जा।' परन्तु उनका कहना है कि "तू अपनी आत्मा को सिद्ध परमात्मा के समान पूर्ण शुद्ध स्वभाव वाला जान-पहचान कर उसी का आश्रय (अवलम्बन) ले, अथवा तू आत्मा के वीतरागी स्वभाव का आश्रय (अवलम्बन) ले ।" अखण्ड आत्मस्वभाव का आलम्बन हो एक तरह से मोक्ष--परमात्मभाव है।
यही समस्त शास्त्रों द्वारा सम्मत, समस्त सन्तों के हृदय से स्वीकृत
१ नियमसार ६६
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