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आलम्बन : परमात्म-प्राप्ति में साधक या बाधक ?
आलम्बन : विपक्ष और पक्ष की दृष्टि से
आत्मार्थी साधक का अन्तिम लक्ष्य परमात्मभाव या मोक्ष की प्राप्ति है । इसके लिए साधक के समक्ष प्रश्न यह है कि परमात्मप्राप्ति में सहायक कोई आलम्बन लिया जाए या नहीं ? जैन सिद्धान्त की निश्चयदृष्टि यह है कि जितनाजितना आलम्बन लिया जाता है, उतनी उतनी आत्मा निर्बल, पराधीन और परमुखापेक्षी बनती है; उसकी प्रगति बहुत ही धीमी और परमात्मभाव की प्राप्ति में विलम्ब - कारी होती है। जबकि व्यवहारदृष्टि यह है कि जब तक आत्मा इतनी तैयार नहीं है, उच्च भूमिका पर पहुँची नहीं है, तब तक नदी पार होने के लिए नौका की तरह यथायोग्य आलम्बन लिया जाए, परन्तु उस आलम्बन को भी अन्ततोगत्वा त्याज्य समझा जाय ।
निश्चयदृष्टि से आलम्बन / निरालम्बन मीमांसा निश्चयदृष्टि से षड्द्रव्यात्मक लोक में छह द्रव्यों में से कोई भी द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य का आधार या आलम्बन नहीं है। प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में स्थित है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का आलम्बन नहीं है । यह कथन केवल औपचारिक या व्यावहारिक है कि आत्मा लोकाकाश के आलम्बन (आधार) से रहता है । कोई भी पदार्थ किसी
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