________________
परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | ३०५
स्वयं के द्वारा दुश्चरित्र अनाचार, दुराचार एवं अनैतिकता धड़ल्ले से अपनाकर ? यदि वह अपनी आत्मा पर नियन्त्रण और सावधानी (चौकसी) न रख कर बेखटके पापकर्म करता जाता है तो उसका फल यहाँ और आगे भी कुगतियों और कुयोनियों के रूप में भोगना पड़ेगा। अतः जाने-अनजाने प्रमादवश या लाचारी से कोई भी पापदोष या अपराध हुआ हो तो उसका प्रतिक्रमण (आलोचना-निन्दना-गहणा-क्षमापनासहित) प्रभु के समक्ष पश्चात्तापपूर्वक निवेदन करके आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिए। तभी परमात्मा का (निश्चयनय से शुद्ध आत्मा का) अनुग्रह शरणागत पर बरसता है। यही शरण-स्वोकार का व्याकरण है जिसे शुद्ध रूप में अपनाने पर परमात्मभाव अवश्य ही प्राप्त किया जा सकता है।
00
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org