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३०४ | अप्पा सो परमप्पा
अविश्वास एवं उनकी भूलें तलाशने की वृत्ति नहीं होनी चाहिए। उनकी वाणी में रचना की भूलें या उनकी आकृति में कमी ढूंढना शरणस्वीकर्ता का सबसे बड़ा दोष है। अथवा वे सर्वज्ञ थे, तो सारी बातें पहले से ही क्यों नहीं बता दीं, भगवान् थे तो उनको इतने कष्ट क्यों सहने पड़े ? उनके इर्द-गिर्द शत्रुता नहीं रहनी चाहिए थी? इत्यादि कुतर्क-वितर्क शरणागति में विघ्न पैदा करते हैं।
(६) परमात्मा में दृढ़विश्वास-शरणागत का परमात्मा के प्रति दृढ विश्वास होना अनिवार्य है। उसके मन में पक्का विश्वास होना चाहिए कि प्रभु की चरण-शरण ग्रहण करने पर मेरा अवश्य कल्याण होगा। मेरी आत्मा के विकास एवं उत्थान का पथ तथा अध्यात्मज्ञान का प्रकाश परमात्मा को शरण से ही मिल सकता है। इनकी शरण स्वीकार करने पर ही संसार के जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, अज्ञान, मोह आदि से जनित दुःख मिट सकते हैं । आत्मिक आनन्द एवं शान्ति इन्हीं की शरण से मिल सकतो है। साथ ही परमात्मा के कथनानुसार आत्मा की क्षमता, उत्कृष्टता, शुद्धता, एवं शक्तियों पर भी दृढविश्वास होना चाहिए। परमात्मविश्वास, आत्मविश्वास से भी ऊँची अन्तःनिष्ठा है। जिसका विश्वास दुर्बल और संशयग्रस्त होगा, वह उनकी शरण से लाभान्वित नहीं हो सकेगा।
(७) परमात्मपद प्राप्ति की तड़फन- परमात्मा की शरण से शरणागत में परमात्मा (परमात्मपद) को प्राप्त करने की, उनका दिव्यदृष्टि से साक्षात् करने की तीव्र उत्कण्ठा होनी आवश्यक है। शरणागत का मुख्य उद्देश्य भो है -परमात्मशरण से परमात्मभाव-वरण का। जिस प्रकार पानी में डूबते समय प्राणवायु (सांस) पाने की तड़फन होती है, वैसी ही तड़फन शरणागत के हृदय प्रभु को पाने की होनी चाहिए।
(८) आत्मा को निर्मल एवं स्वभाव में रत रखने की जागृतिशरणागत का यह सबसे महत्त्वपूर्ण गुण है, क्योंकि शरणागत का अन्तिम लक्ष्य परमात्मभाव को प्राप्त करना है, जो आत्मा को स्वभाव में, शुद्ध भावों में रत रखने से ही प्राप्त हो सकता है। साधक को प्रतिपल जागृत रहना चाहिए कि कहीं वह परमात्मा के नाम की ओट में अपना स्वार्थ सिद्ध तो नहीं कर रहा है, स्वभाव में रमण करने के बजाय जान-बूझकर परभावों और विभावों को अपने मानकर उनमें रागद्वेष-मोहवश प्रवृत्त तो नहीं हो रहा है ? परमात्मा की शरणग्रहण करके शरणागत प्रतिपाल विश्व-वत्सल, दीनबन्धु, करुणासिन्धु प्रभु को बदनाम तो नहीं कर रहा है
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