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________________ परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | ३०३ काया' को किसी प्रकार की चेष्टाएँ करने से रोक कर बिलकुल स्थिर कर दिया जाता है । इसी स्थिति में मन-वचन काया को सर्वथा स्थिर करके प्रभु के समक्ष 'अप्पाणं वोसिरामि' कहकर द्रव्य कायोत्सर्ग किया जाता है । इसी प्रकार की एक और प्रक्रिया भी द्रव्य कायोत्सर्ग की है, जिसमें शरीर को और अंगोपांगों को बिलकुल शिथिल कर दिया जाता है । शरीर की बाह्य स्थिति शवासन की सी हो जाती है । परमात्मा के समक्ष शरीर को पूर्णतः शिथिल छोड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने की अथवा पंचांग झुकाकर नमस्कार करने की भारतीय धर्मों की प्राचीन पद्धति है । यही परमात्मा की शरण स्वीकार करने वाले की बाह्य स्थिति है । जो जैनदृष्टि से द्रव्यवायोत्सर्ग की स्थिति है । भाव - कायोत्सर्ग शरण ग्रहणकर्त्ता साधक की अन्तरंग स्थिति है, जिसमें परमात्मा की शरण स्वीकार करने वाला अपने शरीर और शरीर से सम्बन्धित, अपने माने हुए सजीव-निर्जीव पर - पदार्थों के प्रति अहंत्व - ममत्व का अन्तःकरण से, शुद्ध निष्काम भाव से विसर्जन करता है । परमात्मा के समक्ष कायोत्सर्ग को केवल द्रव्यकायोत्सर्ग समझना भूल है । द्रव्यकायोत्सर्ग के साथ भावकायोत्सर्ग होने पर ही शरणस्वीकर्ता की बहिरंग और अन्तरंग, दोनों प्रकार को स्थिति शरणग्रहण की सर्वांगपूर्ण बनाती है । । शिथिलीकरण वाली द्रव्य कायोत्सर्ग-प्रक्रिया में 'अप्पाणं वोसिरामि' कहने के साथ ही व्यक्ति भूमि पर सीधा लेट जाता है तथा हाथ-पैर आदि सारी अंगों को ढीला छोड़ देता है । उसे केवल काया का शिथिलीकरण भर न समझिये । लेटने के साथ भाव कायोत्सर्ग के सन्दर्भ में शरण ग्रहणकर्त्ता का अहंकार-ममकार भी लेट जाता है उसके साथ काम क्रोधादि अन्य विकार भी उस समय नष्ट हो जाते हैं क्योंकि परमात्मा की शरण ग्रहण करने पर व्यक्ति को शरीररक्षा की चिन्ता नहीं रहती, भयंकर से भयंकर विपत्ति और संकट आने पर भी समभाव से सहन करने की शक्ति उसमें आ जाती है । वह परमात्मा शुद्ध आत्मा की ही शक्ति है, क्योंकि शरणग्रहणकर्त्ता बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार से स्वयं को प्रभुचरणों में विसर्जित कर उनमें तन्मय हो जाता है । (५) शरण्य के प्रति कारण और कुतर्क से दूर - यह शरणागत का पंचभ गुण है । शरणग्रहणकर्त्ता में शरण्य के प्रति मन में कुशंका, १ 'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ।' - आवश्यक सूत्र, कायोत्सर्ग पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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