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________________ ३०२ / अप्पा सो परमप्पा परमात्मा से सम्मुखता और विमुखता का परिणाम यह तो एक अनुभवसिद्ध तथ्य है कि जो फूल पेड़ की जड़ों से अपने सम्बन्ध तोड़ लेता है, सूर्य की ओर मुह फेरने में अकड़ दिखाता है । वर्षा आती है, तब अपनी पंखुड़ियाँ बन्द कर लेता है, वह मुझा जाता है, सड़ जाता है और शीघ्र ही सूखकर झड़ जाता है, उस फूल का विनाश निश्चित है । किन्तु जो फूल पेड़ से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ता, दिन में सूर्य के सम्मुख होकर रहता है, रात को चन्द्रमा की ओर भी मुंह करता है, तथा वर्षा आने पर अपनी पंखुड़ियों को बन्द नहीं करता, वह पेड़ से जीवनशक्ति पाता है, सूर्य और चन्द्रमा से प्रकाश, ऊर्जा और तेजस्विता तथा प्रफुल्लितता पाता है, सूर्य से जीवन रस प्राप्त करता है। ऐसा फूल शरणागत और समर्पित है । वह विकसित और प्रफुल्लित रहता है। उसे सब ओर से प्रकाश और जीवन मिलता है। यही बात परमात्मा से विमुख और सम्मुख या परमात्मा की शरण ग्रहण न करने वाले और करने वाले के विषय में समझ लेनी चाहिए । जो संसारी व्यक्ति उद्धत, अहंकारी और आत्मकेन्द्रित है, वह परमात्मा से ही नहीं, परिवार, समाज और समष्टि से भी अपना शुद्ध शुभ या सम्बन्ध त्याग देता है। वह परमात्मा और शुद्ध आत्मा के सम्मुख होने में अपनी अकड़ दिखाता है । अपने आप में ही बन्द हुआ, वह निपट स्वार्थी या मोह-मुग्ध व्यक्ति, परमात्मा की आध्यात्मिक उपदेशवर्षा को भी ग्रहण नहीं करता, वह परमात्मा के सम्यग्ज्ञान-दर्शन का प्रकाश पाने से वंचित रहता है, उसका जोवन भी बुराइयों, अनैतिकताओं या दुर्व्यसनों में सड़-गलकर खत्म हो जाता है, वह आध्यात्मिक मृत्यु के कगार पर पहुँच जाता है। परन्तु जो परमात्मा से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है, उनके सम्मुख होकर रहने में अपना सौभाग्य समझता है, उनकी उपदेश वृष्टि को ग्रहण करता है, तदनुसार यथाशक्ति आचरण भी करता है, वह परमात्मा से ज्ञानादि का उत्तम प्रकाश पाता है, आनन्दित और प्रफुल्लित रहता है। शरणागत को बाह्य और आभ्यन्तर कायोत्सर्ग की सी स्थिति वीतराग परमात्मा की शरण-ग्रहण करने वाले आत्मसमर्पित साधक की बाह्य और अन्तरंग स्थिति क्रमशः द्रव्य कायोत्सर्ग और भावकायोत्सर्ग के तुल्य हो जाती है । द्रव्य कायोत्सर्ग में मनुष्य शरीर को एक आसन में स्थिर कर देता है। उस समय वाणी को बोलने से, मन को सोचने से और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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