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________________ परमात्म-शरण से परमात्म भाव-वरण | ३०१ करनी है मुझे किसी की शरण, क्यों जान-बूझकर किसी की अधीनता स्वीकार करूं। __ वास्तव में, अहंकार, अष्टविधमद, सप्तविध भय एवं कुतर्क बुद्धि से ग्रस्त व्यक्ति अथवा उद्धत, उद्दण्ड, आत्मकेन्द्रित, निपट स्वार्थी या असीम महत्वाकांक्षी व्यक्ति परमात्मशरण स्वीकार करने से घबराता है। वह अपने पूर्वाग्रह, अहम्मन्यता एवं हठाग्रह को छोड़ नहीं सकता। परन्त शरण स्वीकार करने वाले के लिए पहली शर्त है, इन पूर्वोक्त दोषों को छोड़ने की। सच्चा शरणस्वीकर्ता : प्रभु का उज्ज्वल प्रकाश पाने का अधिकारी सच्चे माने में शरण वही स्वीकार कर पाता है, जो व्यक्ति वीतराग परमात्मा से अपना अनन्य सम्बन्ध जोड़ता है। चकोर जेसे चन्द्रमा के प्रति एकटक दृष्टि रखकर उससे सम्बन्ध जोड़ता है। सूरजमुखी पुष्प या सूर्यविकासी कमल जैसे सूर्य की ओर मुख किये रहता है, सूर्य के उदय होने पर विकसित होता है और सूर्य के अस्त होने पर सिकुड़ जाता है, उसी प्रकार परमात्मा की शरण ग्रहण करने वाला परमात्मा की ओर एकटक दृष्टि रखता है, उनकी ओर अभिमुख रहता है। परिणामस्वरूप वह पर. मात्मा रूपी सूर्य या चन्द्रमा से अनन्तज्ञान का प्रकाश और दर्शन पाना है, उनकी आत्मशक्ति और आत्मिक आनन्द की किरणें उसकी आत्मा पर पड़ती हैं। परमात्मा की शान्ति और ऊर्जा के श्वेत परमाण सीधे उसके मन-मस्तिष्क, हृदय एवं आत्मा पर पड़ते हैं। शरण स्वीकारकर्ता का जीवन ओजस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी बनता है। परमात्मभाव-प्राप्ति में शरणग्रहण एक ऐसी वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से शरणस्वीकर्ता साधक अपने अन्दर रहे हुए काले और मटमैले पापाचरण प्रोत्साहक मानव अणओं को, दिव्य, तेजस्वी, उज्ज्वल तथा शान्ति, सदाचार और प्रसन्नता में अभिवद्धि करने वाले प्रकाशाणों (मानवाणुओं) में परिवर्तित कर सकता है। जैन सिद्धांत की दृष्टि से कहें तो वह कृष्णपक्षी से शुक्लपक्षी बन जाता है, कृष्णादि अप्रशस्त लेश्याओं को प्रशस्त (तेज-पद्म-शुक्ल) लेश्याओं में परिणत कर लेता है। तात्पर्य यह है कि जो इस प्रकार परमात्मा से सीधा अनन्य आत्मीय सम्बन्ध जोड़ लेता है, वही सच्चा शरणस्वीकर्ता है, वही परमात्मा के ज्ञानादि का उज्ज्वल प्रकाश पाता है। १ विशेष जानकारी के लिए देखिए-अणु और आत्मा (ले. मदर जे. सी. ट्रस्ट) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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