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३०० | अप्पा सो परमप्पा
द्वारा रचित संघ ये दोनों ही परमात्मा की शरण स्वीकार करने के साथ ही उपलब्ध हो जाते हैं ।
दूसरी बात - पूर्णता या परमात्मभाव की प्राप्ति की ओर जाना हो तो परमात्मा की शरण ग्रहण करना ही उचित और अभीष्ट है । वास्तव में, शरण स्वीकारने वाला सर्वतोभावेन परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाता है ।
एक दृष्टान्त के द्वारा 'शरण में जाने' और 'शरण स्वीकार करने' के अन्तर को समझ लेना उचित होगा --
एक बार बरसात में उत्पन्न पंखवाले कीड़ों और पतंगों में कुछ समानता होने से परस्पर प्रेम हो गया। पंखवाले कीड़ों ने पतंगों के सरदार से अपनी जाति में मिलाने, परस्पर बिरादरी का सम्बन्ध स्थापित करने तथा मेलजोल बढ़ाने के लिए कहा तो पतंगों के सरदार ने कहा-'बात तो आपकी ठीक है । परन्तु हम आपको अपनी जाति में तभी मिला सकते हैं, जब हम पहले आप लोगों की परीक्षा करलें ।' पंखवाले कीड़ों ने इस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
उसी दिन सन्ध्या काल में जब दीयाबत्ती का समय हुआ तो पतंगों के सरदार ने पंख वाले कीड़ों से कहा- 'अच्छा. जरा देख आइए तो शहर में रोशनी हुई या नहीं ?
पंखवाले कीड़े शीघ्र गति से शहर के बाजार में पहुँच गए और थोड़ी ही देर में वापस लौट आए। वे पतंगों के सरदार से कहने लगे'हम देख आए हैं, शहर में रोशनी हो गई है ।'
पतंगों के चौधरी ने कहा - "हमें आपको हमारी जाति में नहीं मिलाना है । हमारी जाति का कोई भी सदस्य रोशनी देखकर वापस नहीं लोटता । वह प्रकाश पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है, तुम ता प्रकाश को देखकर वापस लौट आए हो ।"
यह है शरण स्वीकारने और शरण में जाने वालों की मनोवृत्ति का स्पष्ट चित्र ! शरण स्वीकार करने वाला शरण्य परमात्मा में ही समर्पित हो जाता है, अपने सर्वस्व को विसर्जित कर देता है, जबकि शरण में जाने वाला प्रायः बीच में से वापस लौट सकता है। उसके अहं और स्वार्थ को ठेस लगते ही उसकी वक्र तर्कबुद्धि तत्काल कह सकती है— नहीं स्वीकार
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