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परमात्म शरण से परमात्मभाव-वरण | २६७
सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं, अगंत-णाणादि गुण-समिद्धोऽहं 11
"मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, मैं (मूल में) परमात्मा के समान अनन्तज्ञानादि गुणों से समृद्ध हूँ।'' जो आत्मा परमात्मशरण स्वीकार करता है वह औपाधिक मलिनता को एक ओर हटा लेता है, और अन्तई ष्टि होकर अनन्यभाव से जब अपने विशुद्ध स्वरूप का अन्तर निरीक्षण-अनुप्रेक्षण करता है, तब समस्त विभावों को आत्मा से भिन्न अनुभव करने लगता है।
ऐसे शरणागत आत्मार्थी को 'सोऽहम्' की प्रतीति होने लगती है। उसका अन्तरात्मा बोल उठता है --प्रभो ! मूल में तुझ में और मुझ में कोई अन्तर ही नहीं है । शरणागत व्यक्ति अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि से परम शुद्ध एवं सूक्ष्म आत्मा को देख लेता है ।
(३) अनुशासित, आज्ञांकित और आश्वस्त जीवन-शरणस्वीकर्ता में तीसरा गुण यह होना चाहिए।
शरण ग्रहणकर्ता के अन्तःकरण में सदैव यह बात अंकित हो जानी चाहिए कि वीतराग परमात्मा का शासन (अनुशासन) मेरे सिर पर है । अतः उसे अपना जीवन सदैव धर्मानुशासन में अनुशासित और नियंत्रित रखना चाहिए। शरणागत साधक गृहस्थ हो साधु, वह कोई भी ऐसा दुष्कृत्य नहीं करेगा, जिससे सरकार और समाज द्वारा वह दण्डनीय हो, बदनाम हो और अपने धर्मतीर्थ संस्थापक वीतराग प्रभु की बदनामी हो । वह परमात्मा वीतराग द्वारा प्ररूपित एवं स्थापित धर्म और धर्मतीर्थ की धर्म-मर्यादाओं के पालन में सजग और त्याग-तप-संयम द्वारा स्वयं को कठोर नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न करेगा । सर्वज्ञ वीतराग द्वारा उपदिष्ट शास्त्रवचन या सिद्धान्त की पूर्वापर विरुद्ध बात जहाँ उसकी समझ में नहीं आती, वहाँ वह पूर्णतः आश्वस्त होकर सही मार्गदर्शन एव कर्तव्य-निर्धारण के लिए वीतराग-परमात्मा की शरण ग्रहण कर वह पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर लेता है और निश्चिन्त तथा निर्द्वन्द्व होकर भावपूर्वक प्रभु को अपने पवित्र शुद्ध हृदयासन पर विराजमान कर जब परमात्मा की भावना से रूपस्थ ध्यान करता है तो अन्तःकरण से स्वतः स्फुरणा प्रस्फुटित हो
१ प्रवचनसार
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