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________________ २६६ | अप्पा सो परमप्पा ( - ) परमात्मा के प्रति अद्वैतभाव - परमात्मा के प्रति अद्वैतभाव में मैं नहीं, तू ही मेरा सर्वस्व है । यही भाव अन्तर्हृदय में गूंजते रहते हैं । एक सूफी संत ने एकात्मभाव से परमात्मा का ध्यान किया। उसने बहुत ही एकाग्रतापूर्वक चिन्तन-मनन के पश्चात् अन्तहृदय में परमात्मा को भावना के द्वारा विराजमान करके मन ही मन द्वार खटखटाया । भीतर से अदृश्य आवाज आई- कौन है ? उसने मन से ही उत्तर दिया- "मैं हूँ ।" अव्यक्त वाणी हुई- "अभी भीतर प्रवेश करने की योग्यता प्राप्त नहीं हुई।" दस वर्ष के पश्चात् फिर इसी प्रकार अन्तःस्थित परमात्मा का द्वार खटखटाया । पुनः अदृश्य आवाज आई और सूफी संत ने वही उत्तर दोहराया। इस बार भी वही अव्यक्त उत्तर मिला। तीसरी बार फिर उसी प्रकार दरवाजा खटखटाने पर उससे पूछा गया तो उसने उत्तर दिया- 'तू हो है ।" इस बार द्वार खुला । अन्तर् में स्पष्ट स्फुरणा उत्पन्न हुई - जब तक 'मैं' है, तब तक परमात्मा ( या मोक्ष) का द्वार नहीं खुलता। 'मैं' को जब 'तू' में समर्पित या विसर्जित कर दिया जाता है; अप्पागं वोसिरामि' ( मैं अपने आपको व्युत्सर्ग करता हूँ) की निष्ठा प्रकट होती है, तभी प्रभु का द्वार खुलता है । उसमें साधक की वर्तमान अशुद्ध आत्मा शुद्ध होकर परमात्मभाव (शुद्ध आत्मभाव ) में मिल जाती है, तादात्म्य स्थापित कर लेता है । वहाँ 'में' और 'तू' एक अद्वैत हो जाते हैं । जैसा कि विनयचन्द चौबीसी में कहा गया है "तुम्हीं- हम एकता मानूँ, द्वैत भ्रम कल्पना जानूँ ।"2 शरण ग्रहण करने वाला परमात्मा और अपनी आत्मा के बीच में द्वैतभाव (दुई) नहीं रखता। वह निश्छल, निर्भय और बालक की तरह सरल निखालिस होकर अपना हृदय परमात्मा के समक्ष खोल देता है । जब आत्मा निष्ठापूर्वक परमात्मा की शरण स्वीकार करके इस प्रकार का अभेद या अद्वैतभाव परमात्मा के साथ स्थापित कर लेता है, तब उसके अन्तर् से वाणी फूट पड़ती है— १ करेमि भंते का पाठ २ विनयचन्द चौबीसी कुन्थुनाथ जिनस्तवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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