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परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २६५
और अप्रतिबद्ध होगी । शरण्य आप्त-पुरुष ( वीतराग परमात्मा) की आप्तता एवं परमात्मभाव को वैभव, चमत्कार, प्रदर्शन, आडम्बर लौकिक स्वार्थपूर्ति आदि के बाँटों से न तोलें । शरणागत द्वारा परमात्मा की शरणग्रहण करने का उद्देश्य एकमात्र परमात्मभाव का शीघ्र वरण करना है । शरणागत की विशिष्ट अर्हताएँ
बिना किसी शर्त और स्वार्थ के वीतराग परमात्मा की शरण स्वीकार करने के अतिरिक्त शरणस्वीकर्त्ता में कुछ विशिष्ट अर्हताएँ आवश्यक हैं । वे इस प्रकार हैं- ( १ ) सर्वतोभावेन अहंत्व- ममत्व - विसर्जन, (२) परमात्मा के प्रति अद्वैतभाव, (३) अनुशासित आज्ञांकित और आश्वस्त जीवन, (४) शरण्य परमात्मा के प्रति समर्पण, (५) शरण स्वीकार करने में कारण और तर्क से दूर रहना, (६) परमात्मा में दृढ़ विश्वास, (७) परमात्मभाव प्राप्त करने की तड़फन, एवं (८) आत्मा को निर्मल एवं स्वभाव में रत रखने की जागृति ।
(१) अहंत्व विसर्जन - परमात्मा की शरण में जाने वाले के लिए अहं का विसर्जन करना अनिवार्य है । उसके बिना परमात्मा की वत्सलता, कृपा, करुणा, दया आदि शरण ग्रहणकर्त्ता साधक को प्राप्त नहीं होती, न ही परमात्म-प्राप्ति का तथा जन्म-मरणादि दुःखों को मिटाने का बोध तथा उत्साह मिलता है । इसीलिए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने परमात्मभक्त शरणागत बनकर वीतराग प्रभु के चरणों में प्रार्थना की है-
त्वं नाथ दुःखिजन-वत्सल ! हे कारुण्य-पुण्य - वसते ! वशिनां भक्त्या नते मयि, महेश ! दयां दुःखांकुरोद्दलन - तत्परतां
अकारणवत्सल हैं, शरणजितेन्द्रिय व्यक्तियों में
अर्थात् - हे नाथ ! दुःखित जनों के प्रति प्रदाता हैं, कारुण्य और पुण्य के आवास स्थान हैं, श्रेष्ठ हैं । हे अनन्तज्ञानादि आत्मिक ऐश्वर्य के निधान महेश्वर ! मैं आपके चरणों में सभक्ति नतमस्तक हूँ । आप मुझ पर दया करके मेरे जन्ममरणादि दुःखों को नष्ट करने का उपाय तथा उत्साह प्रदान करें ।
शरण्य !
वरेण्य !
विधाय ।
विधेहि ||1
वस्तुतः जब शरणग्रहणकर्त्ता अपने अहंत्व का विसर्जन करता है, तभी परमात्मा यानी शुद्ध आत्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है ।
कल्याण मन्दिर स्तोत्र काव्य ३६
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