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________________ २६४ | अप्पा सो परमप्पा पाएगा ? बहुत सम्भव है, उसे बीच में ही धोखा खाकर ऐसे भगवान् को छोड़ना पड़े; अथवा वह उसकी कथनी-करणी में विषमता एवं आत्मिक दुर्बलता देखकर उसके प्रति शंका, अविश्वास एवं अश्रद्धा लाकर या उससे भय या खतरा समझकर छोड़ दे । अतः जो परमज्योतिर्धर, सर्वज्ञ, रागद्व ेषरहित, आत्मघाती कर्मों से रहित, सर्वजीव हितैषी, एवं सत्य - हितोपदेष्टा हैं वे ही पूर्वोक्त १८ दोषों से रहित, आप्त परमात्मा हो सकते हैं, उन्हीं की शरण ग्रहण से आध्यात्मिक विकास के शिखर पर पहुँचने एवं परमात्मभाव प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है । शेष जो दो उत्तमों की शरण बताई गई है, वह परमात्मभाव के मार्ग को बताते हैं, उनसे सीधी परमात्मभाव - प्राप्ति की अनुभवयुक्त प्रेरणा नहीं मिल सकती । इसलिए यहाँ आप्त वीतराग परमात्मा की शरण ग्रहण ही अभीष्ट बताई है । शरण ग्रहण करने की सार्थकता शरणग्रहण करने की सार्थकता तभी पूर्ण हो सकती है, जब वह वीतराग परमात्मा का स्वरूप भलीभांति समझकर, निष्काम, निःस्वार्थ एवं निःस्पृहभाव से उनकी शरण ग्रहण करे । बिना सोचे-समझे यों ही किसी की शरण में जाना अंधकूप में कूदना है । जिसकी शरण में व्यक्ति जाना चाहता है, पहले उसे जानना चाहिए कि वह शरणदाता परमात्मा के गुणों से युक्त है या नहीं ? यदि कोई व्यक्ति किसी लौकिक स्वार्थ, साधन, पुत्र, धन, मुकदमे में विजय या हाथ पकड़कर विपत्ति में सहायता प्राप्त करने की आशा-आकांक्षा से वीतराग आप्त परमात्मा की शरण ग्रहण करता है, तो यह एक प्रकार की सौदेबाजी हो जाएगी, अथवा अतिशय, चमत्कार, वैभव या आडम्बर आदि देखकर कोई इनकी शरण ग्रहण करता है तो वह सच्चे माने में शरण ग्रहण नहीं हैं । शरणग्रहण के साथ कोई सौदेबाजी स्वार्थसिद्धि या चमत्कार - प्रदर्शन की शर्त लगाई जायेगी तो वह शरण निष्काम और निःस्वार्थ नहीं रहेगी । उसमें से शरणागति का असली तत्त्व लुप्त हो जाएगा । और जब उस शरण्य से अमुक स्वार्थ या कामना की पूर्ति नहीं होगी, या अमुक भौतिक चमत्कार नहीं दिखाई देगा तो उसके प्रति देवमूढ़ता से युक्त उस शरणागत की श्रद्धा-भक्ति छूमंतर हो जाएगी । अतः शरण अकारणयुक्त होनी चाहिए, सकारण नहीं । शरण जितनी ही निष्काम, निःस्वार्थ, निःस्पृह एवं विनिमयभाव से रहित होगी, उतनी ही वह शुद्ध होगी, शरणागत की परमात्मभाव की ओर दौड़ उतनी ही तीव्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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