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________________ परमात्म-शरण से परमात्मभाव-वरण | २६३ “णिस्सेस- दोस- रहिओ, केवलणाणाइ - परमविभवजुदो ? सो परमप्पा उच्चई, तव्विवरीओ ण परमप्पा ।"1 जो राग-द्वेष- मोहादि समस्त दोषों से रहित हैं और केवलज्ञानादि परमआत्मिक वैभव ( ऐश्वर्य) से युक्त हैं, वही परमात्मा आप्त कहलाता है, जो उससे विपरीत है, वह आप्त व परमात्मा नहीं हो सकता । लौकिक व्यवहार में भी उसी की शरण ली जाती है, जो उस विषय में समर्थ हो । निर्बल व्यक्ति अपनी रक्षा के लिए शरीर से बलवान् की शरण लेता है, जो निर्भय हो, भयभीत व्यक्ति उसी की शरण ग्रहण करता है । निर्धन धनाढ्य की, मन्दबुद्धि बुद्धिमान् की और अभावपीड़ित सम्पन्न व्यक्ति की शरण में आता है । इसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में उसी की शरण ग्रहण की जानी चाहिए, जो आत्मा के ज्ञानानन्दादि निजी गुणों से परिपूर्ण हो, जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, आत्मानन्द और आत्मिक शक्ति से परिपूर्ण हो, उसी से ज्ञान-दर्शन, आनन्द और शक्ति की परिपूर्णता की ओर, अर्थात् परमात्मभाव की ओर गति प्रगति करने की, उस मार्ग (मोक्षमार्ग) में आने वाले विघ्नों, संकटों, भयों व प्रलोभनों से आत्मरक्षा करने की प्रेरणा मिल सकती हो। जो स्वयं आध्यात्मिक गुणों में अपूर्ण है, निर्बल है, आत्मशक्तियों में बहुत पिछड़ा हुआ है, परोषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहने में अशक्त है, सुख-सुविधाभोगी है, भयों और प्रलोभनों से, तथा मनोज्ञविषयों के मोहजाल से निःसंग, निर्लेप एवं अनासक्त नहीं रह सकता, आत्मगुणों में रमण करने को अपेक्षा स्वयं परभावों या विभावों में अथवा सांसारिक प्रपंचों में डूबा रहता है, उसकी शरण में जाने से सामान्य साधक को अपने अन्तिम लक्ष्य - - परमात्मभाव की ओर गति करने की, परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहने की, त्याग, वैराग्य की, विषय - सुखों से अनासक्त रहने की तथा इष्टवियोग अनिष्टसयोग के समय समभाव में स्थिर रहने की क्या प्रेरणा मिल सकती है ? वह आध्यात्मिक अनुभवहीन व्यक्ति शुद्ध आत्मभावों में रमण करने का क्या उपाय एवं अनुभव बताएगा । कदाचित आप्त-परमात्मा को शरण में जाने के बदले कोई स्वार्थ साधक मोहान्ध व्यक्ति तथाकथित भगवान् को शरण में चला भी जाए तो क्या वह उससे आध्यात्मिक सम्पत्ति या परमात्मभाव की प्रेरणा १ नियमसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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